________________
(३२६)
चक्रदत्तः।
[विरेचना-.
द्विगुण त्रिफलाक्वाथ अथवा दूधके साथ पानसे शीघ्र विरेचन | सायंकालसे प्रारम्भ कर देना चाहिये । जिस प्रकार थोड़ी भाग्नि होता है ॥१५॥
थोड़े थोड़े तृण या गोबर आदिसे धीरे धीरे बढ़ानेसे बहुत समय
तक रहनेवाली तथा सब कुछ जला देनेकी सामर्थ्य युक्त हो सम्यग्विरिक्तलिंगम्।
जाती है। इसी प्रकार शुद्ध पुरुषकी अन्तराग्नि पेयादि सेवन स्रोतोविशुद्धीन्द्रियसम्प्रसादौ
करनेसे दीप्त हो जाती है ॥ १९ ॥२०॥ __ लघुत्वमू|ऽग्निरनामयत्वम् । प्राप्तिश्च विपित्तकफानिलानां
___ यथावस्थं व्यवस्था। सम्यग्विरिक्तस्य भवेत्क्रमण ॥१६॥ कषायमधुरैः पित्ते विरेकः कटुकैः कफे । ठीक विरेचन हो जानेपर शरीरके समस्त स्रोतस शुद्ध, इन्द्रियां | स्निग्धोष्णलवणायावप्रवृत्ते च पाययत् ॥२१॥ प्रसन्न, शरीर हल्का, आनि बलवान् , आरोग्यता तथा क्रमशः | उष्णाम्बु स्वेदयेच्चास्य पाणितापेन चोदरम् । मल, पित्त, कफ और वायुका आगमन होता है ॥१६॥ उत्थानेऽल्पे दिने तस्मिन्भुक्त्वान्येद्युः पुनः पिबेत् ॥ दुर्विरिक्तलिंगम् ।
अदृढस्नेहकोष्ठस्तु पिबेदूर्व दशाहतः। स्याच्छ्लेष्मापत्तानिलसंप्रकोपः
भूयोऽप्युपस्कृततनुः स्नेहस्वैदेविरेचनम् ॥ २३ ॥ ___ सादस्तथाग्नेगुरुता प्रतिश्या ।
यौगिकं सम्यगालोच्य स्मरन्पूर्वमनुक्रमम् । तन्द्रा तथा छर्दिररोचकश्च
दुर्बलः शोधितः पूर्वमल्पदोषः कृशो नरः। वातानुलोम्यं न च दुर्विरिक्ते ॥१७॥
अपरिज्ञातकोष्ठस्तु पिबेन्मृद्वल्पमौषधम् ॥ २४ ॥ ठीक विरेचन न होनेपर कफपित्त और वायुका प्रकोप,
रूक्षबह्वनिलक्रूरकोष्ठव्यायामसेविनाम् । अमिमान्य, भारीपन,जुखाम, तन्द्रा, वमन तथा अरुचि होती है। दीप्तानीनां च भैषज्यमविरेच्यैव जीयति ॥ २५ ॥ और वायुका अनुलोमन नहीं होता ॥ १७ ॥
तेभ्यो वस्ति पुरा दद्यात्ततः स्निग्धं विरेचनम् ।
अस्निग्धे रेचनं स्निग्धं रूक्षं स्निग्धेऽतिशस्यते ॥२६ अतिविरिक्तलक्षणम् । कफास्रपित्तक्षयजानिलोत्थाः
पित्तमें कषैले तथा मधुर द्रव्योंसे, कफमें कटु द्रव्योंसे वायुमें सुप्त्यङ्गमर्दक्लमवेपनाद्याः ।
चिकने, गर्म और नमकीन द्रव्योंसे विरेचन देना चाहिये । इस
प्रकार दस्त न आनेपर ऊपरसे गरम जल पिलाना चाहिये। तथा निद्राबलाभावतमः प्रवेशाः
हाथोंको गरम कर पेटपर फिराना चाहिये । उस दिन कम दस्त सोन्मादहिक्काश्च विरेचितेऽति ॥१८॥
आनेपर दूसरे दिन फिर विरेचन देना चाहिये । पर जो पुरुष दृढ विरेचनका आतंयोग होनेपर कफ, रक्त व पित्तकी क्षीणतासे |
| तथा स्निग्धकोष्ठ न हो, उसे दश दिनके बाद फिर स्नेहन, बढे वायुके रोग, सुप्ति, अङ्गमर्द, ग्लानि, शरीरकम्प, निद्रानाश,I,
निद्रानाश, स्वेदनसे शरीर ठीक कर तथा पूर्वके क्रमको ध्यानमें रखते हुए बलनाश तथा नेत्रोंके सामने अँधेरा छा जाना, उन्माद और |
ठीक ठीक विचार कर विरेचन देना चाहिये । दुर्बल पुरुष, हिक्का आदिरोग उत्पन्न हो जाते हैं ॥१८॥
पूर्वशोधित, अल्पदोष तथा कृश पुरुष और अपरिज्ञात कोष्ठवालेको . पथ्यनियमः।
पहिले मृदु व अल्पमात्र औषध देना चाहिये । तथा रूक्ष, अधिक मन्दाग्निमक्षणिमसाद्वरिक्त
वायु, क्रूरकोष्ठ तथा व्यायाम करने वालों को विना विरेचन किये न पाययेत्तदिवसे यवागूम् ।
ही औषध हजम हो जाती है । अतः ऐसे लोगोंको प्रथम स्नेह
बस्ति देकर फिर स्निग्ध विरेचन देना चाहिये । जो रूक्ष हैं, उन्हें विपर्यये तदिवसे तु सायं
स्निग्ध विरेचन तथा जो अधिक स्निग्ध हैं, उन्हें रूक्ष विरेचन देना पेयाक्रमो वान्तवदिष्यते तु ॥ १९॥ चाहिये। जिसको स्नेहका अभ्यास है, उसे पहिले रूक्षण कर फिर यथाणुराग्निस्तृणगौमयाद्यैः
स्नेहन करना चाहिये, तब विरेचन देना चाहिये ॥२१-२६ ॥ सन्धुक्ष्यमाणो भवति क्रमेण ।
अतियोगचिकित्सा। महान्स्थिरः सर्वसहस्तथैव ।
शुद्धस्य पेयादिभिरन्तरग्निः ॥२०॥ विरूक्ष्य स्नेहसात्म्यं तु भूयः स्निग्धं विरेचयेत् । विरेचन हो जानेके अनन्तर जिसकी अग्नि दीप्त नहीं हुई।
पद्मकोशीरनागाह्वचन्दनानि प्रयोजयेत् ॥ २७॥ तथा रोगी क्षीण नहीं है, उसे उस दिन पथ्य न देना चाहिये ।। अतियोगे विरकस्य पानालेपनसेचनैः । इससे विपरीत होनेपर उसी दिनसे वमनके अनुसार पेयादिक्रम सौवीरापिष्टाम्रवल्कलनाभिलेपोऽतिसारहा ॥ २८॥