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चक्रदत्तः।
मुखरोगा
शीताद नामके दन्तरोगमें, रक्तको निकालकर जलके लगाना चाहिये और गण्डूष धारणके लिये क्षीरी वृक्षांक साथ सोंठ, सरसों और त्रिफलाका क्वाथ कर गण्डूष | कषायमें शहद, घी व शक्कर मिलाकर प्रयोग करना धारण करना चाहिये । तथा प्रियंगु त्रिफला और मोथाका लेप | चाहिये ॥१५-१७ ॥ करना चाहिये ॥९॥१०॥
शैशिरचिकित्सा। रक्तस्त्रावचिकित्सा।
शशिरे हृतरक्ते च लोध्रमुस्तरसाजनैः । कुष्ठं दावर्मिन्दलोभ्रं समंगा
सक्षौद्रैः शस्यते लेपो गण्डूषे क्षीरिणो हिताः॥१८॥ पाठा तिक्ता तेजनी पीतिका च ।
दांतोंके शैशिररोगमें रक्त निकालकर शहदके साथ लोष, चूर्ण शस्तं घर्षणं तद्विजानां
नागरमोथा और रसौंतका लेप करना चाहिये और दूधवाले रक्तस्रावं हन्ति कण्डूं रुजां च ॥ ११॥ वृक्षोंका गंडूष धारण करना चाहिये ॥१८॥ कूठ, दारुहल्दी, नागरमोथा, लोध, लज्जालु, पाठ, कुटकी,
परिदरोपकुशचिकित्सा। चव्य तथा हल्दीके चूर्णको दांतोंमें घिसनेसे रक्तस्राव, खुजली व क्रियां परिदरे कुर्याच्छीतादोक्तां विचक्षणः । पीड़ा नष्ट होती है ॥ ११॥
संशोध्योभयतः कार्य शिरश्चोपकुशे ततः ॥ १९ ॥ चलदन्तस्थिरीकरणम् ।
काकोदुम्बारिकागोजीपत्रैविस्रावयेद् भिषक् । चलदन्तस्थिरकर कार्य बकुलचर्वणम् ।
क्षौद्रयुक्तैश्च लवणैः सव्योषैः प्रतिसारयेत् ॥२०॥ आर्तगलदलक्काथगण्डूषो दन्तचालनुत् ॥१२॥
पिप्पल्यः सर्षपाः श्वेता नागरं नैचुलं फलम् ।। दन्तचाले हितं श्रेष्ठं तिलोपाचर्वणं सदा ।
सुखोदकेन संगृह्य कवलं तस्य योजयेत् ॥ २१ ॥ दन्तपुप्पुटके कार्य तरुणे रक्तमोक्षणम् ॥ १३ ॥ परिदरमें शीतादोक्त चिकित्सा करनी चाहिये । तथा उपकुशमें सपश्चलवणः क्षारः सक्षौद्रः प्रतिसारणम् । वमन, विरेचन तथा नस्यसे शोधन कर कठूमर या गोजिह्वाके दन्तानां तोदहर्षे च वातघ्नाः कवला हिताः ॥१४॥
| पत्तोंसे खुरच कर रक्त निकालना चाहिये । फिर शहदमें त्रिकटु
और पांचों नमकोंको मिलाकर लगाना चाहिये । तथा छोटी दन्तचाले तु गण्डूषो बकुलत्वक्कृतो हितः ।
पीपल, सरसों, सोंठ व समुद्रफलको गुनगुने जलमें मिलाकर कवल मौलसिरीकी छालको चाबना हिलते दाँतोंको मजबूत धारण कराना चाहिये ॥ १९-२१॥ करता है । तथा नीले कटसैलेकी पत्तीके क्वाथका गण्डष धारण करनेसे दाँतोंका हिलना बन्द होता है तथा दाँतोंके
दन्तवैदर्भचिकित्सा । हिलनमें तिल व बचको चबाना हितकर है। नवीन दन्त | शस्त्रेण दन्तवैदर्भ दन्तमूलानि शोधयेत् । पुप्पुटकमें रक्तमोक्षण करना चाहिये । तथा पांचों नमक और ततः क्षारं प्रयुजीत क्रियाः सर्वाश्च शीतलाः२२॥ क्षारके चूर्णको शहद मिलाकर लगाना चाहिये । दाँतोंके दर्द व दन्तवैदर्भमें शस्त्रसे दन्तमूलको शोध कर क्षार लगाना गुंठलानेमें वातनाशक कवल हितकर है । तथा दांतोंके हिलनेमें | चाहिये । तथा समस्त शीतल चिकित्सा करनी चाहिये ॥२२॥ मौलसिरीकी छालके क्वाथका गण्डूष धारण करना चाहिये ॥ १२-१४॥
अधिकदन्ताचेकित्सा।
उद्धृत्याधिकदन्तं तु ततोऽग्निमवचारयेत् । ‘दन्तशूलचिकित्सा।
क्रिमिदन्तकवचात्र विधिः कार्यों विजानता ॥२३॥ माक्षिकं पिप्पलीसर्पिमिश्रितं धारयेन्मुखे ॥ १५॥ अधिक दांतको उखाड़ कर अग्निसे जला देना चाहिये दन्तशलहरं प्रोक्त प्रधानमिदमौषधम ।
| तथा इसमें क्रिमिदन्तके समान चिकित्सा करनी चाहिये ॥२३॥ विस्राविते दन्तवेष्टे व्रणं तु प्रतिसारयेत् ॥ १६ ॥|
अधिमांसचिकित्सा। लोध्रपत्तंगमधुकलाक्षाचूणैर्मधूत्तरैः। . गण्डूषे क्षीरिणो योज्याः सक्षौद्रघृतशर्कराः ॥१७॥
छित्त्वाऽधिमांसं सक्षौरेतेश्चूर्णेरुपाचरेत् । शहद, छोटी पीपल व घीको मिलाकर मुखमें रखना |
पाठावचातेजोवतिसर्जिकायावशूकजैः । चाहिये । यह दन्तशूलको नष्ट करनेमें प्रधान औषधि है।।
क्षीद्रद्वितीयाः पिप्पल्यः कवलश्चात्र कीर्तितः॥२४॥ तथा दन्तवेष्टके रक्तको निकालकर घावमें लोध, पीला। पटोलानम्बात्रफलाकषायश्चात्र धाबने । बन्दन, मौरेठी व लाखके चूर्णको शहद मिलाकर | शिरोविरेकश्च हितो धूमो वैरेचनश्च यः ॥ २५ ॥