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मापाटीकोपेतः ।
धिकारः ]
अधिमांसको काटकर शहद के साथ पाठ, वच, चव्य सज्जीखार तथा जवाखारके 'चूर्णको लगाना चाहिये तथा पीपलको शहदके साथ मिलाकर कवल धारण करना चाहिये । इसमें धोनेके लिये परवल नीम व त्रिफलाके काढ़ेको काममें लाना चाहिये । तथा शिरोविरेचन और विरेचन ( कफनिःसारक ) धूमका प्रयोग करना चाहिये ॥ २४ ॥ २५ ॥
(२४५)
दन्तनाड़ी ठीक होती है । तथा इन्हींके काथ व लोध, कत्था मञ्जीठ तथा मोरेठीकै कल्कसे सिद्ध तैल दन्तनाड़ीको शुद्ध करता है । ऊपरके तैलमें जाती आदिका क्वाथ तथा लोध आदिका कल्क छोड़ना चाहिये और मैनफल कटीला तथा स्वादुकण्टकसे विकंकत लेना चाहिये । कुछ गरम गरम स्नेहके कवलधारण करने चाहियें । दन्त हर्षमें त्रैवृत घृतके द्वारा कमल धारण करना चाहिये । तथा वातनाशक औषधियों के क्वाथ दन्त| हषको नष्ट करते हैं । स्नैहिक धूम तथा स्नैहिक नस्यका प्रयोग | करना चाहिये । दन्तमूल कटने न पावे, इस प्रकार शर्कराको | खुरच कर निकालना चाहिये । फिर शहदसे मिले हुए लाखके करनी चाहिये ॥ २७-३५ ॥ चूर्णको लगाना चाहिये और दन्तहर्षकी समग्र क्रिया
दन्तनाडीचिकित्सा |
नाडीव्रणहरं कर्म दन्तनाडीषु कारयेत् ।
यं दन्तमधिजायेत नाडी तद्दन्तमुद्धरेत् ॥ २६ ॥ दन्तनाड़ी पायरिया में नाडीव्रणनाशक चिकित्सा करनी चाहिये । तथा जिस दन्तमें नाड़ी होगयी हो, उसे उखाड़ डालना चाहिये ॥ २६ ॥
अधिमासादिचिकित्सा ।
छित्त्वाधमांसं शस्त्रेण यदि नोपरिजो भवेत् । शोधयित्वा दहेश्चापि क्षारेण ज्वलनेन वा ॥ २७ ॥ गतिर्हिनस्ति हन्वस्थि दशने समुपेक्षिते । तस्मात्समूलं दशनमुद्धरेद्भग्नमस्थि च ॥ २८ ॥ उद्घृत तूत्तरे दन्ते शोणितं संप्रसिच्यते । रक्ताभियोगात्पूर्वोक्ता घोरा रोगा भवन्ति च॥२९॥ चलमप्युत्तरं दन्तमतो नापहरेद्भिषक् । कषायं जातिमदनकटुकस्वादुकण्टकैः ॥ ३० ॥ लोध्रखदिरमाञ्जष्ठायष्टयाहैश्वापि यत्कृतम् । तैलं संशोधनं तद्धि हन्याद्दन्तगतां गतिम् ॥ ३१ ॥ कषायं परतः कृत्वा पिष्ट्वा लोघ्रादिकाल्कितम् । कण्टकीमदनो योज्यः स्वादुकण्टो विकंकतः ॥ ३२॥ सुखोष्णाः स्नेहकवलाः सर्पिषस्त्रेवृतस्य वा । निर्यूहाचानिलन्नानां दन्तहर्षप्रमर्दनाः ।। ३३ ।।
किश्च हितो धूमो नस्यं स्नैहिकमेव च । अहिंसन् दन्तमूलानि शर्करामुद्धरेद्भिषक् ॥३४ ॥ लाक्षाचूर्णैर्मधुयुतैस्ततस्तां प्रतिसारयेत । दन्तहर्षक्रियां चापि कुर्यान्निरवशेषतः ॥ ३५ ॥
कपालिका क्रिमिदन्तचिकित्सा |
कपालिकाः कृच्छ्रसाध्यास्तत्राप्येषा क्रिया मता । जयेद्विस्रावणैः स्त्रिन्नमचलं क्रिमिदन्तकम् ॥ ३६ ॥ तथावपीडैर्वातन्नैः स्नेहगण्डूषधारणैः । भद्रदार्वादिवर्षाभूळेपैः स्निग्धैश्च भोजनैः । सोषण हिंगु मतिमान्त्रिमिदन्तेषु दापयेत् ||३७ ॥ कपालिका कृच्छ्रसाध्य होती है, उसमें भी यही क्रिया खूनको निकालना चाहिये । तथा वातघ्न अवपीड़क नस्य, करनी चाहिये। जो क्रिमिदन्त हिलता न हो, उसका स्वेदन कर स्नेहगण्डूष और भद्रदार्वादि और पुनर्नवाके लेप तथा स्निग्ध भोजन कराना चाहिये । तथा क्रिमिदंतमें बुद्धिमान् वैद्य काली मिर्च व हींगको रखवावे ॥ ३६ ॥ ३७ ॥
बृहत्यादिक्वाथः ।
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बृहती भूमिकदम्बकपञ्चाङ्गुलिकण्टकारिकाथैः । गण्डूषस्तैलयुतः क्रिमिदन्तकवेदनाशमनः ॥ ३८ ॥ बड़ी कटेरी, मुण्डी, एरण्ड व कण्टकारिकाके क्वाथमें तैल मिलाकर गण्डूष धारण करनेसे क्रिमिदन्तकी पीड़ा शांत होती है ॥ ३८ ॥
नील्यादिचर्वणम् । नीलीवायसजंघास्नुदुग्धीनां तु मूलमेकैकम् । संच दशनविधृतं दशनक्रिमिपातनं प्राहुः ॥ ३९ ॥ चलमुद्धृत्य वा स्थानं दहेत्तु शुषिरस्य वा । ततो विदारीयष्टयाह्नशृङ्गाटककशेरुभिः ।
अधिमास यदि ऊपर न हो, तो शस्त्रसे काटकर शुद्ध करना चाहिये । फिर क्षार या अग्निसे जला देना चाहिये । दांतकी उपेक्षा करनेसे नासूर दाढको नष्ट कर देता है,
तैलं दशगुणक्षीरसिद्धं नस्ये तु योजयेत् ॥ ४० ॥ नील, काकजंघा, सेहुण्ड, दूधीमेंसे किसी एककी जड़
अतः समूल दांत और टूटी हड्डी इनको उखाड़ डालना चाहिये । ऊपरके दांतको उखाड़नेसे खून बहता है, रक्तके बहनेसे और अनेक कठिन रोग हो जाते हैं, खोद चबाकर दांतमें रखनेसे दांतके कीड़े गिर जाते अतः हिलते हुए भी ऊपरके दांतको न उखाड़ना चाहिये । हैं । चलदन्तको उखाड़ना तथा छिद्रमें आग लगा देनी चमेली, मैनफल, कुटकी व विकंकतके काथसे कवलधारणसे चाहिये । फिर बिदारकन्द, मोरेठी, सिंघाड़ा व कशेरूक