________________
भाषाटीकोपेतः ।
विकारः ]
व केवटी मोथाको शहदके साथ मिलाकर रगड़ना चाहिये । तथा उपनासाका व्यध गलशुण्डीको नष्ट करता है, इसी प्रकार सम्भालूकी जड़का चर्वण गलशुण्डीको नष्ट करता है । तथा इसमें बच, अतीस पाढ़, रासन, कुटकी और नीमका बनाकर केवल धारण करना चाहिये ॥ ५५-५७ ॥
तुण्डीर्यादिचिकित्सा |
क्षारसिद्धेषु मुद्रेषु यूषाश्चाप्यशने हिताः । तुण्डिकेर्यषे कूर्मे संघाते तालुपुप्पटे ॥ ५८ ॥ एष एव विधिः कार्यों विशेषः शस्त्रकर्मणि । तालुपाके तु कर्तव्यं विधानं पित्तनाशनम् ॥ ५९ ॥ स्नेहस्वेदौ तालुशोषे विधिश्वानिलनाशनः ।
डिकेरी, अधुष, कूर्मसंघात और तालुपुप्पुट में क्षारसे सिद्ध केयूषका पथ्य देना चाहिये । तथा शस्त्रकर्म भी विशेष अवस्था में करना चाहिये । तालुपाकमें पित्तनाशक चिकित्सा करनी चाहिये । तालुशोषमें स्नेहन, स्वेदन तथा वातनाशक चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ५८ ॥ ५९ ॥ -
रोहिणीचिकित्सा |
साध्यानां रोहिणीनां तु हितं शोणितमोक्षणम् ॥६०॥ छर्दनं धूमपानं च गण्डूषो नस्यकर्म च । वातिकीं तु हृते रक्ते लवणैः प्रतिसारयेत् ॥ ६१ ॥ सुखोष्णांस्तैलकवलान्धारयेच्चाप्यभीक्ष्णशः । पतंगशर्कराक्षीद्रेः पैत्तिकीं प्रतिसारयेत् ॥ ६२ ॥ द्राक्षापरूषकक्वाथो हितश्च कवलग्रहे ।
आगारधूमकटुकैः कफजां प्रतिसारयेत् ॥ ६३ ॥ श्वेताविडंगदन्तीषु सिद्धं तैलं ससैन्धवम् ।
नस्यकर्माणि दातव्यं कवलं च कफोच्छ्रये ॥ ६४॥ पित्तवत्साधयेद्वैद्यो रोहिणीं रक्तसम्भवाम् ।
साध्यरोहिणियों में रक्त निकालना चाहिये । तथा वमन, धूमपान, गण्डूष और नस्यकर्म करना चाहिये । वातिकरोहिणी में raat निकालकर नमकों को उर्राना चाहिये । कुछ गरम गरम तैलके कवल धारण करना चाहिये । पैत्तिकरोहिणी में पीतचन्दन a Ear शहद मिलाकर लगाना चाहिये । तथा मुनक्का व फाल्सके क्वाथका कवल थारण करना चाहिये । कफजमें गृहधूम तथा त्रिकटुको मिलाकर उराना चाहिये । तथा सफेद विष्णुक्रान्ता, वायविडङ्ग व दन्तीसे सिद्ध तैलमें सेंधानमक मिलाकर नस्य तथा कवल धारण करना चाहिये । तथा पित्तके समान रक्तज रोहिणी की चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ६०-६४ ॥
( २४७ )
एककालं यवान्नं च भुञ्जीत स्निग्धमल्पशः । उपजिह्निवच्चापि साधयेदधिजिह्विकाम् ॥ ६६ ॥ उन्नाय जिह्वामाकृष्य बडिशेनाधिजिह्विकाम् । छेदयेन्मण्डलाग्रेण तीक्ष्णोष्णैर्घर्षणादिभिः ॥ ६७ ॥ एकवृन्द तु विस्राव्य विधिं शोधनमाचरेत् । गिलायुश्चापि यो व्याधिस्तं च शस्त्रेण साधयेत् ६८॥ अमर्मस्थं सुपक्वं च भेदयेद्गलविद्रधिम् ।
कण्ठशालकको चीरकर तुंडिकेर के समान चिकित्सा करनी चाहिये । तथा एक बार यवका अन्न चिकना घृतादियुक्त थोड़ा थोड़ा खाना चाहिये | उपजिह्ना के समान अधिजिह्वाकी चिकित्सा करनी चाहिये । जिह्वाको उठाकर बड़ खींचकर मण्डलाग्रसे काट देना चाहिये । एकवृन्देको तीक्ष्ण उष्ण घर्षणादिसे बहाकर शोधनविधि करनी चाहिये । गिलायुनामक रोगको शस्त्रसे सिद्ध करना चाहिये । तथा जो गलविद्रधि पक गयी हो, और मर्मस्थान में न हो, उसे चीर देना चाहिये ॥ ६५-६८ ॥ -
कण्ठरोगचिकित्सा | कण्ठरोगेष्वसृङ्मोक्षस्तीक्ष्णैर्नस्यादिकर्म च ॥ ६९ ॥ काथपानं तु दार्वीत्वह्निम्बतार्क्ष्यक लिङ्गजम् । हरीतकीकषायो वा पेयो माक्षिकसंयुतः ॥ ७० ॥ कण्ठरोगों में रक्तको निकालना चाहिये । तथा तीक्ष्ण औषधियोंसे नस्यादि कर्म करना चाहिये । तथा दारूहल्दीकी छाल, नीम, रसौत व इन्द्रयवके काढ़ेको पीना चाहिये । अथवा हरों के काढ़में शहद मिलाकर पीना चाहिये ॥ ।। ६९ ।। ७० ।।
कटुकादिक्वाथः । कटुकातिविषादारुपाठामुस्तक लिङ्गकाः । गोमूत्रकथिताः पेयाः कण्ठरोगविनाशनाः ॥ ७१ ॥
कुटकी, अतीस, देवदारु, पाढ़, नागरमोथा, व इन्द्रयवका गोमूत्र में क्वाथ बनाकर पीनेसे कण्ठरोग नष्ट होते हैं ॥ ७१ ॥
कालकचूर्णम् ।
गृहधूमो यवक्षारः पाठा व्योषरसाञ्जनम् । तेजोह्रा त्रिफला लोहं चित्रकश्चेति चूर्णितम् ॥७२॥ सक्षौद्रं धारयेदेतद्गलरोगविनाशनम् । कालकं नाम तच्चूर्ण दन्तजिह्वास्यरोगनुत् ॥७३ ॥ गृहधूम, जवाखार, पाढ़, त्रिकटु, रसौत चव्य, त्रिफला, | लौह भस्म व चीतकी जड़ के चूर्णको शहद मिलाकर धारण कर नेसे दन्त, जिह्वा व मुखके रोगोंको नष्ट करता है । इसे "कालक
कण्ठशालूकादिचिकित्सा ।
विस्राव्य कण्ठशालूकं साधये तुण्डिके रिवत् ||६५ || चूर्ण कहते हैं ॥ ७२ ॥ ७३ ॥