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धिकारः]
भाषाटीकोपेतः।
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सिद्धेऽस्मित्रिफलाव्योषयमानीमुस्तसैन्धवम् ॥९३॥ दशमूल, गुर्च, भारङ्गी, गोखुरू, चीतकी जड़, कचूर प्रत्येक कांशसंमितं दद्यात्त्वगेलापत्रकेशरम् ।
द्रव्य ४ तोला, भल्लातक अधकुटे १००० एक हजार सब एक खादेदग्निबलापेक्षी प्रातरुत्थाय मानवः ॥ ९४ ॥
द्रोण जलमें पकाना चाहिये, चतुर्थांश शेष रहनेपर उतार छान ५ कुष्ठार्शःकामलामेहग्रहणीगुल्मपाण्डुताः ।
सेर गुड़ छोड़कर पकाना चाहिये। जब अवलेह तैयार हो जावे, तो हन्यात्प्लीहोदरं कासक्रिमिरोगभगन्दरान् ।।
ठण्ढाकर शहद १६ तोला, छोटी पीपलका महीन चूर्ण १६
| तोला, शुद्ध एरण्डतैल १६ तोला, दालचीनी १६ तोला, तेजगडभल्लातको ह्येष श्रेष्ठश्वार्थीविकारिणाम् ॥९५॥
|पात १६ तोलां, छोटी इलायची १६ तोला, सबका महीन धकुटे शुद्ध भल्लातक २००० दो हजार एक द्रोण जलमें चूर्ण छोड़कर रख लेना चाहिये । यह अर्श, कास, उदावर्त, पकाना चाहिये । चतुर्थीश शेष रहनेपर उतार छानकर ५ सेर पाण्डुरोग, शोथ, अग्निमान्द्यको नष्ट करता है । मात्रादि ऊपरके गुड़ तथा ५०० पांच सौ भिलावा कूटे हुए डालकर पकाना प्रयोगके अनुसार है ॥ ९६-९९ ॥ चाहिये । पाक तैयार हो जानेपर त्रिफला, त्रिकटु, अजवाइन, नागरमोथा, सेंधानमक, दालचीनी, तेजपात, इलायची, नाग
चव्यादिघृतम्। केशर-सब एक एक तोला ले चूर्ण बना (कपड़छान किया )। चव्यं त्रिकटुकं पाठां क्षारं कुस्तुम्बुरूणि च । छोड़ उतारकर रख लेना चाहिये । अग्नि तथा बलके अनुसार यमानी पिप्पलीमलमुभे च विडसैन्धवे ॥१०॥ इसकी मात्राका प्रातःकाल सेवन करना चाहिये। यह कुष्ठ, अश, चित्रकं बिल्वमभयां पिष्टवा सपिर्विपाचयेत् । कामला, प्रमेह, ग्रहणी, गुल्म, पाण्ड, प्लीहोदर, कास, क्रिमि.| शकृद्वातानुलोम्याथै जातं दनि चतुर्गुणे ॥१७१॥ रोग तथा भगन्दरको नष्ट करता है। तथा अर्शरोगवालों के लिये
प्रवाहिकां गुदभ्रंशं मूत्रकृच्छ्रे परिस्रवम् । विशेष हितकर है॥ ९२-९५॥
गुदवंक्षणशूलं च घृतमेतद्वथपोहति ॥ १०२ ॥ द्वितीयगुडभल्लातकः।
चव्य, सोंठ, काली मिर्च, छोटी पीपल, पाढ़, यवाखार, दशमूल्यमृता भाी श्वदंष्ट्रा चित्रकं शटी। धनियां, अजवाइन, पिपरामूल, विडनमक, सेंधानमक, चीतकी भल्लातकसहस्रं च पलांशं काथयेद् बुधः ॥९६ ॥ जड़, बेलका गूदा, बड़ी हर्रका छिल्का सबका कल्क तथा चतुपादशेषे जलद्रोणे रसे तस्मिन्विपाचयेत् । र्गुण दही तथा चतुर्गुण जल मिलाकर घृत पकाना चाहिये। यह दत्त्वा गुडतुलामेकां लेहीभूतं समुद्धरेत् ॥९७ ॥ घृत प्रवाहिका, गुदन्नंश, मूत्रक्लच्छ्र, दस्तोंका आना, गुदा तथा माक्षिकं पिप्पली तैलमारुबूकं च दापयेत् । वंक्षणके शूलको नष्ट करता है ॥ १००-१०२॥ कुडवं कुडवं चात्र त्वगेलामरिचं तथा ॥ ९८ ॥
पलाशक्षारघृतम् । अर्शः कासमुदावर्त पाण्डुत्वं शोथमव च । व्योषगर्भ पलाशस्य त्रिगुणे भस्मवारिणि । नाशयेद्वह्रिसादं च गुडभल्लातकः स्मृतः ॥९९॥ साधितं पिबतः सपिः पतन्त्यस्यसंशयम् १०३।।
घृतसे त्रिगुण पलाशक्षार जल, घृतके समान जल और चतु१ इसकी मात्रा ६ माशेसे प्रारम्भ कर २ तोला तक क्रमशः थोश सोंठ, मिर्च, पीपलका कल्क छोड़कर पकाया गया घृत बढाना चाहिये, और तैल, मिर्चा( लाल ) खटाई, गुड़ आदि सेवन करनेसे अर्शके मस्सोंका अवश्य पातन होता है ॥१०३ ॥ गरम चीजोंका परहेज रखना चाहिये तथा प्रतिश्यायमें नहीं। खाना चाहिये और धूपमें कम निकलना चाहिये।
__उदकषट्पलकं घृतम् ।
सक्षारैः पञ्चकोलेस्तु पलिकेत्रिगुणोदके । २ भल्लातकके अनेक प्रयोग अनेक ग्रन्थों में कुछ पाठान्तर
समक्षीरं घृतप्रस्थं ज्वरार्शः प्लीहकासनुत् ॥१०४॥ या प्रकरणान्तरसे हैं और सभी रसायन वाजीकरण बताये गये हैं। यथा-योगरत्नाकरवाजीकरणाधिकारमें अमृतभल्लातकतथा अर्शोs
Is भल्लातककी छीटे आदि पड़ जानेसे शोथ हो जावे, तो धिकारमें भल्लातकावलेह, गदनिग्रह, लेहाधिकार इत्यादि । पर
| करना चाहिये। भल्लातक सेवन करानेके समय यह ध्यान रखना चाहिये कि. करना किसी किसीको भल्लातकसे शोथ हो जाता है, अतः जिसे शोथ। १ क्षारपक्वघृतलक्षणम्-“यस्मिन्नवसरे क्षारतोयसाध्यघृतादिषु । हो जावे, उसे इसका सेवन न कराना चाहिये । तथा भल्लातक-| फेनोद्गमस्य निर्वृत्तिनष्टदुग्धसमाकृतिः ॥ स एव तस्य पाकस्य दोषनाशार्थ कच्ची गरी खिलाना चाहिये । और काले तिल व कालो नेतरलक्षणः ।" अर्थात् क्षारजलसाध्य घृतोंमें जब फेनोद्गम गरीका उबटन लगवाना चाहिये । तथा इमलीके पत्तेसे गरम हो जावे और बिगडे दूधके समान उसकी आकृति हो जावे, जलसे स्नान कराना चाहिये । यही विधि यदि बनाते समय | तभी सिद्ध घत ससझना चाहिये । दूसरा लक्षण नहीं। .