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चक्रदत्तः।
[अर्शो
पिप्पली, पिप्पलीमूल, चव्य, चीतकी जड़, सोंठ तथा यव- निकलना, शूल, मूत्रकृच्छ्र, प्रवाहिका, कमर, ऊरु और पीठकी क्षार प्रत्येक एक पल, घत एक प्रस्थ, दूध एक प्रस्थ तथा जल दुर्बलता, अफारा, लासेदार दस्तोंका आना, गुदाकी सूजन, ३ प्रस्थ मिलाकर पकाना चाहिये, घत मात्र शेष रहनेपर उतार मल तथा वायुका विबन्ध तथा दोषयुक्त बहुत दस्तोंका आना छानकर रखना चाहिये। यह घृत ज्वर, अर्श, प्लीहा तथा आदि रोगोंको नष्ट करता है ॥ १०७-११० ॥ कासको नष्ट करता है ॥ १०४ ॥
रक्तार्शश्चिकित्सा। सिंह्यमृतं घृतम् ।
रक्तार्शसामुपेक्षेत रक्तमादी स्रवद्भिषक् । पचेद्वारिचतुद्रोणे कण्टकार्यमृताशतम् ।
दुष्टाने निगृहीतेतु शूलानाहावमृगगदाः ।। १११॥ तत्राग्नित्रिफलाव्योषपूतिकत्वक्कलिंगकैः ॥१०५॥
बहते हुए रक्तकी प्रथम उपेक्षा ही करना चाहिये । क्योंकि सकाश्मयविडंगैस्तु सिद्धं दुर्नाममेहनुत् । दुष्ट रक्त रोक देनेसे शुल होजाता है तथा रक्तजन्य अन्य रोग घृतं सिंह्यमृतं नाम बोधितत्त्वेन भाषितम् ।।१०६॥ | भी हो जाते हैं ॥ १५१ ॥ छोटी कटेरीका पञ्चांग ५ सेर, गुर्च ५ सेर, जल ५१ सेर
रक्तस्रावनी पेया। १६ तोला छोड़कर पकाना चाहिये । चतुर्थांश शेष रहनेपर
लाजैः पेया पीता चुक्रिकाकेशरोत्पलैः। उतार छानकर घृत ३ सेर १६ तोला तथा नीचे लिखी ओषधियोंका मिलित कल्क एक प्रस्थ छोड़कर पकाना चाहिये ।।
हन्त्यस्रस्ताव सा तथा बलाश्निपर्णीभ्याम्॥११२॥ कल्क द्रव्य-(चीता, त्रिफला, त्रिकटु, कञ्जाकी छाल, इन्द्रयव,
अमलोनिया, नागकेशर तथा नीलोफरके जलमें अथवा खम्भारकी छाल, वायविडंग)। यह घृत अर्श तथा प्रमेहको ख
खरेटी और पिठिवनके जलमें धानकी खीलसे बनायी गयी पेया नष्ट करता है। इसका सर्व प्रथम किसी बौद्ध महात्माने प्रचार सेवन करनेसे रक्तस्राव नष्ट होता है ॥ ११२॥ किया था॥१०५॥१०६ ॥
रक्ताशीनाशकसामान्ययोगाः। पिप्पलाद्यं तैलम्।
शंक्रकाथः सविश्वो वा किंवा बिल्वशलाटवः । पिप्पली मधुकं बिल्वं शताहां मदनं वचाम् । । योज्या रक्तार्शसांतद्वज्योत्स्निकामूललेपनम्॥११३।। कुष्ठं शटी पुष्कराख्यं चित्रकं देवदारु च ॥१०७।। नवनीततिलाभ्यासात्केशरनवनीतशर्कराभ्यासात् । पिष्टवा तैलं विपक्तव्यं द्विगुणक्षीरसंयुतम् । दधिसरमथिताभ्यासाद्गुदजाः शाम्यन्ति रक्तवहाः१४ अर्शसां मूढवातानां तच्छ्रेष्ठमनुवासनम् ॥ १०८ ॥ समंगोत्पलमोचाह्वतिरीटतिलचन्दनैः। गुदनिःसरणं शूलं मूत्रकृछं प्रवाहिकाम् । छागक्षीरं प्रयोक्तव्यं गुदजे शोणितापहम् ॥ ११५ ॥ कट्यूरुपृष्ठदौर्बल्यमानाहं वङ्क्षणाश्रयम् ॥१०९॥ पिच्छास्रावं गुदे शोथं वातवर्धेविनिप्रहम् ।। |-वचाबिल्वहुताशनैः । सुपिष्टं द्विगुणं क्षीरं तैलं तोयं चतुर्गुणम् । उत्थानं बहुदोषं च जयेच्चैवानुवासनात् ॥११०॥ पक्त्वा बस्ती निधातव्यं मूढवातानुलोमनम् । " एतदनुसारेण
'तच्छ्रेष्ठमनुवासनम् ' इत्यस्य स्थानेऽपि तच्छ्रेष्ठमनुलोमनम् । छोटी पीपल, मौरेठी, बेलका गूदा, सौंफ, मैनफल, वच
| अर्थात् इसी सिद्धान्तसे 'तच्छ्रेष्ठमनुवासनम् ' इसके स्थानमें भी दूधिया, कूठ, कचूर, पोहकरमूल, चीतकी जड़, देवदारु-सब समान भाग ले कल्क बनाकर कल्कसे चतुर्गुण तेल और तैलसे
।' तच्छेष्टमनुलोमनम् ' यही होना चाहिये । यदि यह कहो कि
यह तैल अनुवासनके लिये है, तो यह अर्थ 'जयेचैवानुवासनात्' द्विगुण दुग्ध और दुग्धसे द्विगुण जल मिलाकर पका लेना चाहिये। यह तैले अनुवासनसे अर्श, वायुकी रुकावट, कांच
|से ही सिद्ध हो जायगा । और अनुवासन दो बार लिखनेसे
पुनरुक्ति दोष भी आता है। १ यद्यपि इस ग्रयोगमे । एफेनापि चातुर्गुण्यं द्वाभ्यामपि १ यहां "शक" शब्दका अर्थ निश्चल नामक आचार्यके सिद्धाचातुर्गुण्यम् ' इस परिभाषाके अनुसार द्विगुण ही जल सिद्ध |न्तसे लिखा गया है और वह विशेषतया रक्तसंग्राहक है । पर होता है, पर कुछ आचार्योंका मत है कि-"क्षीरदध्यारनालस्तु शक्रका अर्थ इन्द्रयव (कुटजबीज ) न होकर कुटजछाल ही पाको यत्रेरितः क्वचित् । जलं चतुर्गुणं तत्र वीर्याधाना- होता है और चरकमें लिखा भी है " कुटजत्वनियूहः सनागरः र्थमावपेत् ॥” यही उचित भी है क्योंकि यही प्रयोग- स्निग्धो रक्तसंग्रहणः" । और वाग्भटमें भी इसीका अनुवाद सुश्रुतमें लिखा है । वहांपर कण्ठरवसे ही चतुर्गुण जल लिखा है। किया गया है । यथा-सकफे प्रपिबेत्पाक्यं शुण्ठीकुटजयथाशीनुष्करणालामदनामरदारुभिः । शताबकुष्ठयष्टयाह्व- वल्कजम् इति दिक् ।