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(२८६) चक्रदत्तः।
[स्त्रीरोगासन्न्न्न्न्न्न्च्न्न् बालक उत्पन्न होता है। इसी प्रकार फालसा और शालिपर्णीमसे
अपरापातनयोगा। किसीकी जड़का लेप अथवा वासाकी जड़को कमरमें बांधनेसे शीघ्र ही बालक उत्पन्न हो जाता है । जो स्त्री पाढकी जड़ कटुतुम्ब्यहिनिर्मोककृतवेधनसर्षपैः ॥२६॥ योनिमें रखती है वह प्रसवकालमें सुखपूर्वक बालक उत्पन्न करती कटुतैलान्वितो धूमो योनेः पातयतेऽपराम् । है। कलिहारीकी जड़ काजीमें पीसकर पैरामें लगानेसे शीघ्र ही कचवेष्टितयांगुल्या घृष्टे कण्ठे सुखं पतत्यपरा ॥२७ बालक हो जाता है । अडूसेकी जड़से भी नाभि, मूत्राशय और
। कडुई तोम्बी, सांपकी केंचुल, कडुई तोरई व सरसोंके बीजके भगमें लेप करना चाहिये । तथा काजीके साथ गृहधूम पिलाना|
चूर्णको कडए तैलके साथ धूम योनिकी अपराको गिराता है। चाहिये । इससे सुखपूर्वक गोत्पत्ति होती है। बिजौरे निम्बूकी!
बालोंको अंगुलीमें लपेटकर कण्ठमें घिसनेसे अपरा गिरती जड़ व मौरेठीके चूर्णको शहदमें मिलाकर घीके साथ
है ॥ २६ ॥२७॥ पिलानेसे सुखपूर्वक बालक होता है, पुटमें जलायी गयी सांपकी केंचुलकी चिकनी भस्मको शहदके साथ आंखमें
अपरो मन्त्रः । लगानेसे स्त्री शीघ्र ही गर्भको बाहर करती है । चाहे मूढगर्भा ही क्यों न हो हाम्बुके साथ हींग व सेंधानमकका पान गर्भको
" एरण्डस्य वनात् काको गङ्गातीरमुपागतः । बाहर निकालता है ॥ १२-१९ ॥
इतः पिबति पानीयं विशल्या गर्भिणी भवेत् ॥"
अनेन सप्तधामन्त्र्य जलं देयं विशल्यकम् ॥ २८॥ सुप्रसूतिकरो मन्त्रः।
एरण्डक बनसे कौआ गङ्गातीर आया, इधर पानी पीता है, इहामृतं च सोमश्च चित्रभानुश्व भामिनि । इधर गर्मिणी गर्भरहित होती है । इस मन्त्रसे सात बार आमउच्चैःश्रवाश्च तुरगो मन्दिरे निवसन्तु ते ॥२०॥ |त्रित कर जल पीनेसे गर्भिणी गर्भरहित होती तथा अपराका इदममृतमपां समुद्धृतं वै
पातन होता है ॥ २८॥ भव लघुगर्भमिमं विमुञ्चतु स्त्री। तदनलपवनार्कवासवास्ते
अपरे योगाः। सह लवणाम्बुधरैर्दिशन्तु शान्तिम् ॥२१/ मूलेन लाङ्गलिक्या वा संलिप्ते पाणिपादे च । मुक्ताः पाशा विपाशाश्व मुक्ताः सूर्येण रश्मयः ।।
अपरापातनं मद्यः पिप्पल्यादिरजः पिबेत् ॥ २९॥ मुक्तः सर्वभयाद्गर्भ एह्येहि मा चिरं स्वाहा ॥२२॥ गरीमदनदहनमूलं चिरजमाप ।
ऊपर लिखे मन्त्रसे सात वार अभिमन्त्रित जल पिलानेसे | गर्भ मृतममृतं वा निपातयति ॥ ३० ॥ सुखपूर्वक बालक होता है ॥ २०-२२ ॥
कलिहारीकी जड़से हाथ पैरों में लेप कर शराबके साथ पिप्प. यन्त्रप्रयोगः।
ल्यादिचूर्ण पीनेसे अपरा पातन होता है। इसी प्रकार गरी (नरिजलं च्यवनमन्त्रेण सप्तवाराभिमन्त्रितम् । यल) मैनफल व चीतकी जड़का चूर्ण भी मृत या जीवित पीत्वा प्रसूयते नारी दृष्ट्वा चोभयत्रिंशकम् ॥२३ ॥ गर्भको गिराता है ॥ २९-३०॥ तथोभयपञ्चदशदर्शनं सुखसूतिकृत् ।
मक्कलचिकित्सा। षोडशर्तुवसुभिः सह पक्षदिगष्टादशभिरेव च ॥२४ अर्कभुवनाब्धिसहितैरुभयत्रिंशकमिदमाश्चर्यम् ।
शालिमूलाक्षमात्रं वा मूत्रेणाम्लेन वान्वितम् । वसुगुणाब्ध्येकबाणनवषट्सप्तयुगैः क्रमात् ॥२५॥
उपकुञ्चिकां पिप्पली च मदिरां लाभतः पिबेत्।।३१ सर्व पञ्चदश द्विस्तु त्रिशकं नवकोष्ठके ।
सौवर्चलेन संयुक्तां योनिशुलनिवारणीम् । उभयपञ्चदशकम् ।
उभयत्रिंशकम् ।
सूताया हच्छिरोबस्तिशूलं मकलसंज्ञितम् ॥ ३२॥
यवक्षारं पिबेत्तत्र सर्पिषोष्णोदकेन वा । १६६८
पिप्पल्यादिगणकाथं पिबेद्वा लवणान्वितम् ॥ ३३॥
१२/१४/४ शालि (धान ) की जड़ १ तोला मूत्र अथवा काजीके इन यन्त्रोंको लिखाकर दिखानेसे सुखपूर्वक बालक हो जाता
साथ अथवा कलौंजी, छोटी पीपल, शराब व काला नमक
मिलाकर पीनेसे योनि शूल तथा प्रसूता स्त्रीके हृदय, है ॥ २३-२५॥
शिर और बस्तिके शूल तथा मक्कल शूल नष्ट होता है । १"गृहाम्बु" काजीको कहते हैं।
|अथवा उसमें जवाखार घी अथवा गरम जलके साथ पीवे
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२०१०