________________
धिकारः]
भाषाटीकोपेतः।
(३०७)
-
wwww
लौहपाकरसायनम् ।
| यदि कर्पूरप्राप्तिर्भवति ततो विगलिते तदुष्णत्वे । अभ्यस्तकर्मविधिभिर्बालकुशाग्रीयबुद्धिभिरलक्ष्यम् ।।
चूर्णीकृतमनुरूपं क्षिपेन्न वा न यदि तल्लाभः।।८५॥ लौहस्य पाकमधुना नागार्जुनशिष्टमाभेदध्मः॥७७॥
इस प्रकार पाक हो जानेपर पात्रको शीघ्रही भूमिमें उतार
|कुछ देर ठहरकर त्रिफला आदिका 'चूर्ण पूर्वोक्त मानमें छोड़ना लोहारकूटताम्रजकटाहे दृढमृण्मये प्रणम्य शिवम् ।
चाहिये । यदि उत्तम कर्पूर मिले, तो उसे बिल्कुल ठण्डा हो जानेसदयः पचेदचपलः काष्ठेन्धनेन वह्निना मृदुना ७८/
ना दुना ८पर मिलाना चाहिये। और न मिले, तो कोई आवश्यकता निक्षिप्य त्रिफलाजलमुदितं यत्तद् धृतं च दुग्धं च । | नहीं ॥ ८४ ॥ ८५॥ सञ्चाल्य लौहमय्या दा लग्नं समुत्पाट्य ॥७९॥ मृदुमध्यखरभावैः पाकस्त्रिविधोऽत्र वक्ष्यते पुंसाम्।
लौहस्थापनम् । पित्तसमीरणश्लेष्मप्रकृतीनां मध्यमस्य समः ॥८॥
पकं तदश्मसारं सुचिरघृतस्थित्यमाविरूक्षत्वे ।
गोदोहनादिभाण्डे भाण्डाभावे सति स्थाप्यम्८६॥ अब हम कुशाप्रबुद्धि तथा दृष्टकर्मा वैद्योंसे भी दुज्ञेय महा
। इस प्रकार पका हुआ लौह उत्तम लोहके ही भांडमें और मान्य मुनि नागार्जुनद्वारा वर्णित लौहपाकविधि कहते हैं । शंकर
|उसके अभावमें आधिक समयतक घी रखनेसे जिसकी रूक्षता जीको प्रणाम कर वह लौह व त्रिफलाजल तथा घी व दूध
धमिट गयी है, ऐसे मिट्टीके बर्तन में अथवा गोदोहनी आदिमें ( उक्तमात्रामें) छोड़कर लकड़ियों द्वारा मन्द आँचसे पकाना ड़ियों द्वारा मन्द आचस पकाना | रखना चाहिये ॥८६॥
: चाहिये । तथा कड़ाहीमें चिपकता हुआ कल्छीसे खुरचते जाना | चाहिये । पाक तीन प्रकारका होता है। पित्तप्रकृतिवालके लिये |
लोहाद् घृताहरणम् । " मृदुपाक, " बातप्रकृतिबालके लिये “ मध्यमपाक " और यदि तु परिप्लुतिहेतोघृतमीक्षेताधिकं ततोऽन्यस्मिन् । कफप्रकृतिवालेके लिये “ खरपाक " तथा समप्रकृतिवालेके | भाण्डे निधाय रक्षेद्भाव्युपयोगो ह्यनेन महान् ॥ ८ ॥ लिये समपाक" होना चाहिये ॥ ७७-८०॥
यदि इस लौहमें घृत अधिक तैरता दिखायी दे, तो उसे त्रिविधपाकलक्षणम् ।
किसी दूसरे पात्रमें निकालकर रख दे और लौहके रूक्ष हो
जानेपर इसे छोड़े। इससे यही बड़ा काम होगा ॥ ८७ ॥ अभ्यक्तदुर्वि लोहं सुखदुःखस्खलनयोगि मृदु मध्यम् | उज्झितदर्वि खरं परिभाषन्ते केचिदाचार्याः ॥८१॥
त्रिफलाघृतनिषेकः। अन्ये विहीनदप्रिलेपमाखूत्कराकृति ब्रुवते । ।
__ अयसि विरूक्षीभूते स्नेहात्रिफलाघृतेन सम्पाद्यः । मृदुः मध्यमर्धचूर्ण सिकतापुजोपमं तु खरम्॥८२॥ एतत्ततो गुणोत्तरमित्यमुना स्नेहनीयं तत् ॥ ८८ ॥ जो कल्छीमें लिपा रहे उसे "मृद" जो कुछ कठिनतासे कुछ लोहके विशेष रूक्ष हो जानेपर तथा लौहपाकसे बचा घी आसानीसे छूट जाय उसे "मध्यम" जो कल्छीसे छट जाय उसे न रहनेपर त्रिफलाके क्वाथ तथा कल्कसे सिद्ध घृतसे स्नेहन करना "खर" पाक कहते हैं। दूसरे आचार्यों का सिद्धान्त है कि जो लौह चाहिये । यह “त्रिफला घृत" लोहपाकसे निकाले गये घृतसे भी कल्छीमें न चिपकते हुए भी मूसेकी लेंडीके समान हो जाय, वह आधिक गुणदायक होता है, अतः इसीका निषिञ्चन "मृदु" जो आधा चूर्णसा हो जाय वह "मध्य " जो रेतीके करना चाहिय ॥ ८८ ॥ ढेरके समान हो जाय उसे "खर" पाक कहते हैं ॥ ८१॥८२॥ लोहपाकावशिष्टघृतप्रयोगः। त्रिविधपाकफलम् ।
अत्यन्तकफप्रकृतेर्भक्षणमयसोऽमुनैव शंसन्ति । त्रिविधोऽपि पाक ईदृक् सर्वेषां गुणकृदेव न तु विफलः।।
केवलमपीदमशितं जनयत्ययसो गुणान्कियतः।।८९
तथा अत्यन्त कफ प्रकृतिवाले मनुष्यको इसी त्रिफला घृतके प्रकृतिविषये च सूक्ष्मी गुणदोषौ जनयत्यल्पम् ।।८३॥
|साथ लौहका सेवन करना चाहिये। यह घृत अकेले सेवन करनसे तीनों प्रकारका पाक सभीके लिये गुणकारी ही होता है, भी लोहके गुणोंको करता है ॥ ८९॥ विफल नहीं । पर प्रकृतिके अनुसार कुछ विशेष गुण तथा कुछ |
लौहाभ्ररसायनम् । थोडे दोष भी करता है ॥८३ ॥
अथवा वक्तव्यविधिसंस्कृतकृष्णाभ्रकचूर्णमादाय । . प्रक्षेप्यव्यवस्था।
लौहचतुर्थार्द्धसमाद्वित्रिचतुःपंचगुणभागम् ।। ९०॥ विज्ञाय पाकमेवं द्रागवतार्य क्षिती क्षणान्कियतः। प्रक्षिप्यायः प्राग्वत् पचेदुभाभ्यां भवेद्रजो यावत् । . विश्राम्य तत्र लोहे त्रिफलादेःप्रक्षिपेच्चूर्णम् ॥८४॥ तावन्मानानुस्मृतेःस्यात्रिफलादिद्रव्यपरिमाणम् ॥९१।।