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धिकारः]
भाषाटीकोपेतः।
(३१७)
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अश्वगन्धा सखजूरा मधुकं त्र्यूषणं सिता। भी साहचर्यसे कल्कद्रवकी भांति प्रत्येक १ तोला लेना भल्लातकमात्मगुप्ता समभागानि कारयेत् ॥ २७ ॥ चाहिये ॥ २५-३५ ॥ घृतप्रस्थं पचेदेकं क्षीरं दत्त्वा चतुर्गुणम् ।
शतावरीघृतम्। मृद्वग्निना च सिद्धे च द्रव्याण्येतानि निःक्षिपेतू२८॥
घृतं शतावरीगर्भ. क्षीरे दशगुणे पचेत् । त्वगेलापिप्पलीधान्यकर्पूरं नागकेशरम् ।
शर्करापिप्पलीक्षोदयक्तं तद् वृष्यमुच्यते ॥३६ ।। यथालाभं विनिक्षिप्य सिताक्षीद्रपलाष्टकम् ॥२९॥ शतावरीका कल्क तथा घृतसे दशगुण दूध मिलाकर घी शक्त्येक्षुदण्डेनालोड्य विधिवद्विनियोजयेत् । पकाना चाहिये। घी सिद्ध हो जानेपर उतार छान शक्कर व शाल्योदनेन भुञ्जीत पिबेन्मांसरसेन वा ॥ ३०॥ छोटी पीपलका प्रक्षेप उचित मात्रामें छोड़कर सेवन करना केवलस्य पिबेदस्य पलमात्रां प्रमाणतः। |चाहिये । यह उत्तम वाजीकरण है ॥ ३६ ॥ न तस्य लिङ्गशैथिल्यं न च शुक्रक्षयो भवेत्॥३१॥
गुडकूष्माण्डकम् । बल्यं परं वातहरं शुक्रसजननं परम् । मूत्रकृच्छ्रप्रशमनं वृद्धानां चापि शस्यते ॥३२॥॥ कूष्माण्डकात्पलशतं सुस्विन्नं निष्कुलीकृतम् । पलद्वयं तदश्नीयाद्दशरात्रमतन्द्रितः ।
प्रस्थं घृतस्य तैलस्य तस्मिंस्तप्ते प्रदापयेत्॥ ३७॥ स्त्रीणां शतं च भजते पीत्वा चानुपिबेत्पयः ॥३३॥
पत्रत्वग्धान्यकव्योषजीरकैलाद्वयानलम् । अश्विभ्यां निर्मितं चैतद्गोधूमाद्यं रसायनम् ।
प्रन्थिकं चव्यमातङ्गपिप्पलीविश्वभेषजम् ॥ ३८ ॥ जलद्रोणे तु गोधूमक्काथे तच्छेषमाढकम् ॥ ३४॥
शृङ्गाटकं कशेरुं च प्रलम्बं तालमस्तकम् । मुखातकस्य स्थाने तु तद्गुणं तालमस्तकम् ।
चूर्णीकृतं पलांशं च गुडस्य च तुलां पचेत् ॥३९॥ कल्कद्रव्यसमं मानं त्वगादेः साहचर्यतः ॥ ३५ ॥
शीतीभूते पलान्यष्टी मधुनः सम्प्रदापयेत् ।
कफपित्तानिलहरं मन्दाग्नीनां च शस्यते ॥४०॥ गेहूँ ५ सेर, जल २५ सेर ९ छ० ३ तो. छोड़कर कृशानां बृंहणं श्रेष्ठं वाजीकरणमुत्तमम् । पकाना चाहिये । चतुर्थाश शेष रहनेपर उतार छानकर प्रमदासु प्रसक्तानां ये च स्युः, क्षीणरेतसः॥४१॥ क्वाथ तैयार करना चाहिये । उस क्वाथमें गेहूँ, मुजातफल
क्षयेण च गृहीतानां परमेतद्भिषग्जितम् । (मूञ्जके बीज ), उड़द, मुनक्का, फाल्सा, काकोली, क्षीरका
कासं श्वासं ज्वरं हिक्कां हन्ति छर्दिमरोचकम्॥४२॥ कोली, जीवन्ती, शतावरी, असगन्ध, छुहारा, मोरेठी, सोंठ,
गुडकूष्माण्डकं ख्यातमश्विभ्यां समुदाहृतम् । मिर्च, पीपल, मिश्री, कोंचके बीज व भिलावां प्रत्येक १ तोले
खण्डकूष्माण्डवत्पात्रं स्विन्नकूष्माण्डकाद्रवः॥४३॥ का कल्क तथा घी १ सेर ९ छ० ३ तो० और दूध ६ सेर | ३२ तो मिलाकर मन्द आंचसे पकाना चाहिये । सिद्ध हो छिलके व बीजरहित पेठा उबाल रस निचोड़ अलग रखना जानेपर उतार छानकर दालचीनी, इलायची, छोटी पीपल, चाहिये । फिर गायका घी ६४ तो० वा तिल तैल ६४ तो. धनियां, कपूर, नागकेशर प्रत्येक एक तोलेका चूर्ण छोड़ना मिलाकर पूर्वोक्त विधिसे स्विन्न ५ सेर पेठा भूनना चाहिये। चाहिये, तथा मिश्री व शहद ३२ तो० ( दोनों मिलाकर जब पेठा अच्छी तरह भुन जावे, अर्थात् सुर्थी आजाय और छोड़ कर ईखके दण्डसे मिलाकर रखना चाहिये । इसे शालिके सुगन्ध उठने लगे, उस समय वही पेठेका रस तथा ५ सेर गुड़ भातके साथ खाना अथवा मांसरसमें मिलाकर पीना चाहिये (गुड़ पुराना होना चाहिये । पर आज कल इसे मिश्री छोड़अथवा केवल घृत ४ तोलेकी मात्रासे पीवे । इसके सेवनसे लिङ्ग कर बनाते हैं) मिला छानकर छोड़ देना चाहिये और उस शिथिल नहीं होता । न शुक्र ही क्षीण होता है । यह बल तथा समयतक पकाना चाहिये जबतक खूब गाढा न हो जाय । बीर्य बढाता और वायुको नष्ट करता है। तथा मूत्रकृच्छ्रको शान्त | फिर तेजपात, दालचीनी, धनियां, त्रिकटु, जीरा, छोटी व बड़ी करता और वृद्धोंके लिये भी हितकर है । इसे ८ तोलेतककी इलायची, चीतकी जड़, पिपरामूल, चव्य, गजपीपल, सोंठ, मात्रामें १० दिनतक सावधानीसे सेवन करना चाहिये । इसे सिंहाड़ा, कशेरू, ताड़की बाली प्रत्येक ४ सोले चूर्णको पीकर ऊपरसे दूध पीना चाहिये । यह "गोधूमादि" रसायन छोड़कर उतार लेना चाहिये । तथा ठण्डा हो जानेपर शहद भगवान् अश्विनीकुमारोंने वनाया है । इसमें गेहूँका काथ | ३२ तोला मिलाना चाहिये । यह कफ, पित्त और वायुको एक द्रोण ( द्रवद्वैगुण्यात् २ द्रोण, ) जलमें बनाना नष्ट करता तथा मन्दाग्निवालोंके लिये हितकर है। तथा कुशचाहिये, चतुर्थांश क्वाथ रखना चाहिथे । मुजातकके न मिल-1 पुरुषोंको पुष्ट करता और उत्तम वाजीकरण है । श्रीगमनसे जो नेपर ताड़की वाली छोड़नी चाहिये। दालचीनी आदिका मान क्षीण होरहे हैं, अथवा जा क्षयसे पीड़ित हैं, उनके लिये यह