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(१०८)
चक्रदत्तः।
[वातन्याध्य
- कल्याणको लेहः। | (१) दशमूल, खरेटी, उड़दका क्वाथ, तैल व घी मिलाकर
सायंकाल भोजन करनेके अनन्तर पीनेसे विश्वाची तथा सहरिद्रा वचा कुष्ठं पिप्पली विश्वभेषजम् ।
अपबाहुक रोग नष्ट होता है । तथा (२) खरेटीका रस मजाजी चाजमोदा च यष्टीमधुकसैन्धवम् ॥१९॥ व (३) नीमका रस (४) अथवा कौंचका रस जो पीता एतानि समभागानि श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत् । है तथा (५) मांसरससे नस्य लेता है, उसके विश्वाची तच्चूर्ण सर्पिषालोड्य प्रत्यहं भक्षयेन्नरः ॥ २० ॥ व अपबाहुक रोग नष्ट होते हैं ॥ २५ ॥ २६ ॥ एकविंशतिरात्रेण भवेच्छ्रतिधरो नरः। ।
पक्षाघातचिकित्सा। मेघदुन्दुभिनिर्घोषो मत्तकोकिलनिःस्वनः ।। २१ ।। माषात्मगुप्तकैरण्डवाटयालकशृतं पिबेत् । जडगद्गदमूकत्वं लेहः कल्याणको जयेत् । । हिगुसैन्धवसंयुक्तं पक्षाघातनिवारणम् ॥ २७ ॥ हरिद्रा, वच, कूठ, छोटी पीपल, सौंठ, जीरा, अजवाइन, बाहुशोषे पिबेत्सर्पिभुक्त्वा कल्याणकं महत् । मोरेठी, सेंधानमक सबका महीन चूर्णकर घोके साथ प्रतिदिन हृदि प्रकुपिते वाते चांशुमत्याः पयो हितम्॥२८॥ चाटना चाहिये । इक्कीस रात्रतक इसके प्रयोग करनेसे मनुष्य
| उड़द, कौंचके बीज, एरण्डकी छाल तथा खरेटीका श्रुतिधर (एकवार मुनकर सदा याद रखनेवाला ), मेघ तथा
" काथ भुनी: हींग व सेंधानमक मिलाकर पीनेसे पक्षाघातरोग दुंदुभीके समान गरजनेवाला तथा मत्त कोकिलके समान स्वर
नष्ट होता है। बाहुशोषमें भोजनके अनन्तर महाकल्याणकघृतका वाला होता है । जड़ता, गद्गदकण्ठ तथा मूकताको यह "कल्या
सेवन करना चाहिये। तथा हृदयमें वायुके कुपित होनेपर णक" लेह नष्ट करता है ॥ १९-२१॥
( अपतन्त्रकवातमें ) शालिपींसे सिद्ध किया दूध पीना त्रिकस्कन्धादिगतवायुचिकित्सा । चाहिये ॥२७॥२८॥
हरीतक्यादिचूर्णम् । रूक्षं त्रिकस्कन्धगतं वायुं मन्यागतं तथा । वमनं हन्ति नस्यं च कुशलेन प्रयोजितम् ॥२२॥
हरीतकी वचा रास्ना सैन्धवं चाम्लवेतसम् । त्रिक, स्कन्ध तथा मन्यागतवायुको कुशल पुरुषद्वारा प्रयुक्त
घृतमात्रासमायुक्तमपतन्त्रकनाशनम् ॥ २९॥ . सूक्ष वमन तथा नस्य शान्त करता है ॥ २२ ॥
बड़ी हर्रका छिल्का, वच, रासन, सेंधा नमक तथा अम्ल
|वेतका चूर्ण घीमें मिलाकर चाटनेसे अपतन्त्रक रोग नष्ट होता माष लादिवायनस्यम् । माषबलाशूकशिम्बीकत्तृणगस्नाश्वगन्धोरुबूकाणाम् ।
स्वल्परसोनपिण्डः। काथो नस्यनिपीतो रासठलवणान्वितः कोष्णः।।२३ पलमधे पलं चैव रसोनस्य सुकुट्टितम् । अषहरति पक्षवातं मन्यास्तंभं सकर्णनादरुजम् । ।
हिंगुजीरकसिन्धूत्थैः सौवर्चलकटुत्रयैः ॥ ३०॥ दर्जयमर्दितवातं सप्ताहाज्जयति चावश्यम् ॥२४॥ चूर्णितैर्माणकोन्मानैरवचूर्ण्य विलोडितम् ।। उड़द, खरेटी, कौंचके बीज, रोहिष घास, रासन,
यथाग्नि भक्षितं प्राता रुबूक्काथानुपानतः ॥ ३१ ॥ असगन्ध तथा एरण्डकी छालका क्वाथ, भूनी हींग व
दिने दिने प्रयोक्तव्यं मासमेकं निरन्तरम् । नमक मिलाकर कुछ गरम गरम नासिका द्वारा पीनेसे ( नस्य
वातरोगं निहन्त्याशु अर्दितं सापतन्त्रकम् ॥ ३२॥ लेनेसे) अवश्यमेव पक्षाघात, मन्यास्तम्भ, कानका दर्द तथा| सनसनाहट व कठिन अर्दितरोग ७ दिनमें नष्ट होजाता।
एकाङ्गरोगिणे चैव तथा सर्वाङ्गरोगिणे । है ॥ २३ ॥ २४ ॥
ऊरुस्तम्भे च गध्रस्यां क्रिमिकोष्ठे विशेषतः ॥३३॥ विश्वाचीचिकित्सा।
कटीपृष्ठामयं हन्यादुदरं च विशेषतः। दशमूलीबलामाषक्काथं तैलाज्यमिश्रितम् ।
साफ कुटा हुआ लहसुन ६ तोला, भुनी हींग, जीरा,
सेंधानमक, काला नमक, सोंठ, मिर्च, पीपल प्रत्येक १ माशे सायं भुक्त्वा पिबेन्नक्तं विश्वाच्यामपबाहुके ॥२५॥
चूर्णकर अपनी अग्नि तथा बलके अनुसार सेवन करने तथा रसं बलायास्त्वथ पारिभद्रा
ऊपरसे एरण्डकी छालका क्वाथ पीनेसे १ मासमें वातरोग, __ त्तथात्मगुप्तास्वरसं पिबेद्वा ।
अर्दित, अपतन्त्रक, पक्षाघात, सर्वाङ्गग्रह, ऊरुस्तम्भ, गृध्रसी, नस्यं तु यो मांसरसेन दद्या
क्रिमिकाष्ठ, कमर, पीठके रोग तथा उदर रोगोंको नष्ट करता न्मासादसी वज्रसमानबाहुः॥२६॥ है ॥ ३०-३३ ॥