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धिकारः]
भाषाटीकोपेतः।
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और स्त्री इसे पीकर सुन्दर मेधावी बालक उत्पन्न करती अस्य प्रभावात्कुक्षिस्थःस्फुटवाग्व्याहरत्यपि। है । जिसके गर्भ नहीं रहता, अथवा जो मरा या अल्पायु द्राक्षा परूषकाश्मयों फलत्रयमुदाहृतम् ॥ ५४॥ बालक उत्पन्न करती है, अथवा जिसके कन्या ही उत्पन्न होती|
“ओं नमो महाविनायकायाहै, वे सभी सुन्दर बालक उत्पन्न करती हैं । योनिदोष, रजोदोष
मृतं रक्ष रक्ष मम फलसिद्धिं व परिस्रावमें यह हितकर है। यह सन्तान बढाता, आयु बढाता
देहि रुद्रवचनेन स्वाहा" तथा समस्त ग्रहदोष ना करता है। इसको भगवानू अश्विनीकुमारने "फलघृत" नामसे कहा है। इसमें लक्ष्मणाकी जड़ नहीं
सप्तदूर्वाभिमन्त्रितम् ॥ ५५ ॥ कही गयी, पर वैद्य उसे भी छोड़ते हैं। इसमें जिसका बछड़ा: सरसों, वच, ब्राह्मी, शंखपुष्पी, पुनर्नवा, क्षीरविदारी कूठ, जीता हो, ऐसी एक रजवाली गायका घी उत्तम बताते हैं, तथा मारेठी, कुटकी, इलायची, मुनका, फाल्सा, खम्भार, फल जंगली कण्डोंकी आँच देनी चाहिये ॥३६-४३॥
शारिवा, काली शारिवा, हल्दी, पाढ, भाँगरा, देवदारु, हुलहुल,
मजीठ, त्रिफला, निसोथ, अडूसेके फूल, गेरू इनके साथ प्रस्थ अपरं फलघृतम् ।
घी सिद्ध कर ठीक मन्त्रसे अभिमन्त्रित कर दो मासकी गर्भिणी सहचरे द्वे त्रिफलां गुडूची सपुनर्नवाम् । स्त्री ६ मासतक सेवन करे, फिर न सेवन करे, वह पूर्णाङ्ग, बलशुकनासां हरिद्रे द्वे रानां मेदां शतावरीम् ॥४४॥ वान्, पण्डित पुत्रको उत्पन्न करती है । जड़ता, गद्गदता और कल्कीकृत्य घृतप्रस्थं पचेत्क्षीरचतुर्गुणम् । मूकता पीनेसे ही नष्ट होती है । सात रात्रितक इसके प्रयोग तत्सिद्धं प्रपिबेन्नारि योनिशलप्रपीडिता ॥४५॥ करनेसे मनुष्य श्रुतग्राही हो जाता है । जहाँ यह घृत रहता है, पिण्डिता चलिता या च निःसृता विवृता च या।
| उस घरको अनि नहीं जलाती, न वज्र नष्ट करता है, न ग्रहोंका
आक्रमण होता है, न बालक ही मरता है। जहाँ यह " सोमपिण्डयोनिस्तु विसस्ता षण्ढयोनिश्च या स्मृता ४६॥
घृत " रहता है, वन्ध्या भी रोगरहित बालक उत्पन्न करती हैं। प्रपद्यन्ते तु ताः स्थानं गर्भ गृह्णन्ति चासकृत् । जो स्त्रियाँ योनिरोगसे पीड़ित तथा जो पुरुष शुक्रदोषसे दूषित एतत्फलघृतं नाम योनिदोषहरं परम् ॥ ४७ ॥ होते हैं, वे इसके सेवनसे शुद्ध होते हैं। इसके प्रभावसे पेटके
दोनों कटसला, त्रिफला, गुर्च, पुनर्नवा, सोना पाठा, हल्दी, अन्दर ही गर्भ बोलने लग जाता है । इसमें त्रिफलासे दाम्हल्दी, रासन, मेदा, व शतावरीका कल्क कर १ प्रस्थ घी, मुनक्का, फाल्सा और खम्भार लेना चाहिये । ७ दूब चौगुना दूध मिलाकर पकाना चाहिये । यह घृत योनिशूलसे लेकर नीचे लिखे मन्त्रसे बनाते समय तथा खाते समय पीड़ित, पिंडित, चलित, निःसृत, विवृत, पिण्डयोनि, शिथिल- अभिमन्त्रण करना चाहिये । मन्त्रः-“ ॐ नमो महायोनि तथा षण्ढयोनिवाली स्त्रियोंको पिलाना चाहिये । इससे विनायकायामृतं रक्ष रक्ष मम फलसिद्धि देहि रुद्रवचनेन योनि ठीक गर्भ धारण योग्य हो जाती है। यह "फलघृत "स्वाहा ॥४८-५५॥ योनिदोष नष्ट करने में श्रेष्ठ है ॥ ४४-४७ ॥
नीलोत्पलादिघृतम् । सोमघृतम्।
नीलोत्पलोशीरमधूकयष्टीसिद्धार्थकं वचा ब्राह्मी शंखपुष्पी पुनर्नवा ।
द्राक्षाविदारीतृणपञ्चमूलैः। पयस्यामययष्टयाह्नकटुकैलाफलत्रयम् ।। ४८॥
स्याज्जीवनीयश्च घृतं विपकं शारिवे रजनी पाठा भृङ्गदारु सुवर्चला।
शतावरीकारसदुग्धमिश्रम् ॥५६॥ मनिष्ठा त्रिफला श्यामा वृषपुष्पं सगैरिकम् ॥४९॥ तच्छर्करापादयुतं प्रशस्तधीमान्पक्त्वा घृतप्रस्थं सम्यक् मन्त्राभिमन्त्रितम् ।। मसृग्दरे मारुतरक्तपित्ते । द्विमासगर्भिणी नारी षण्मासान प्रयोजयेत् ॥५०॥ क्षीणे बले रेतसि संप्रनष्टे सर्वाङ्ग जनयेत्पुत्रं शरं पण्डितमानिनम ।
कृच्छ्रे च रक्तप्रभवे च गुल्मे ॥५७॥ जडगद्दमूकत्वं पानादेवापकर्षति ।। ५१ ॥
नीलोफर, खश, मौरेठी, मुनक्का, बिदारीकन्द, तृणसप्तरात्रप्रयोगेण नरः श्रुतिधरो भवेत् ।
पञ्चमूल और जीवनीयगणके कल्कमें शतावरीका रस और नाग्निर्दहति तद्वेश्म न वनं हन्ति न प्रहाः ॥५२॥ मिलाकर सिद्ध घृत चतुर्थाश शक्करके साथ मिलाकर न तत्र म्रियते बालो यत्रास्ते सोमसंज्ञितः ।
सेवन करनेसे वातरक्तपित्तजन्य प्रदर, बलकी क्षीणता, वन्ध्यापि लभते पुत्रं सर्वामयविवर्जितम् । शुक्रनाश, मूत्रकृच्छ्र और रक्तज गुल्ममें लाभ पहुंचता योनिदुष्टाश्च या नार्यो रेतोदुष्टाश्च ये बराः॥५३॥ है ॥५६ ॥ ५ ॥