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(३६) चक्रदत्तः।
[अतिसारा
न्य पाठां समङ्गातिविषां समुस्तां
इन्द्रयव, दारुहलदीकी उत्तम छाल, छोटी पीपल, सोंठ, बिल्वं च पुष्पाणि च धातकीनाम् । लाख, कुटकी-इन छः ओषधियोंके कल्कसे चतुर्गुण धृत प्रक्षिप्य भूयो विपचेत्तु तावद्
और घृतसे चतुर्गुण जल छोड़कर सिद्ध करना चाहिये ।
इसे मण्डके साथ सेवन करनेसे त्रिदोषज अतीसार भी दप्रिलेपः स्वरसस्तु यावत् ॥ ८६ ॥
नष्ट होता है ॥ ८९ ॥९॥ पीतस्त्वसौ कालविदा जलेन मण्डेन चाजापयसाऽथवाऽपि ।
क्षीरिनुमाद्यं घृतम् । निहन्ति सर्व त्वतिसारमुग्रं
क्षीरिदुमाभीरुरसे विपकं कृष्णं सितं लोहितपीतकं वा ॥ ८७॥ ___ तज्जैश्च कल्कैः पयसा च सर्पिः । दोषं ग्रहण्यां विविधं च रक्तं
सितोपलाध मधुपादयुक्त शुलं तथाशीसि सशोणितानि ।
रक्तातिसारं शमयत्युदीर्णम् ॥ ९१॥ अमृग्दरं चैवमसाध्यरूपं
क्षीरिवृक्ष ( वट, गूलर आदि) मिलित अथवा किसी एकके निहन्त्यवश्यं कुटजाष्टकोऽयम् ॥८८॥ क्वाथ भोर शतावरके रसमें घृत तथा घृतके समान दूध छोड़कर
और इन्हीं ओषधियोंका कल्क छोड़ घत पकाना चाहिये । कुडेकी गीली छाल १ तुला ले, , द्रोण जलमें पकाकर इस घतको आधी मिश्री तथा चतुर्थाश शहद मिलाकर सेवन चतुर्थीश शेष रहनेपर उतार छानकर फिर पकाना चाहिये, करनेसे रक्तातिसार नष्ट होता है॥११॥ पकाते समय मोचरस १ पल, पाढ़ १ पल, लज्जालुके बीज १ पल, अतीस १ पल, नागरमोथा १ पल, बेलका गूदा
क्षीरपानावस्था । १ पल धायके फूल १ पल सबका-चूर्ण कर छोड़ना चाहिये, जीर्णेऽमृतोपमं क्षीरमतीसारे विशेषतः। फिर जब कलछुलमों चिपकाने लग जाय, तब उतारकर रख |
छागं तद्भेषजः सिद्धं देयं वा वारिसाधितम् ॥९२।। लेना चाहिये । इसको अवश्यकतानुसार ठण्ढे जल, मण्ड |
पुराने अतीसारमें दूध विशेष हितकर होता है। अतः बकअथवा बकरी के दूधके साथ पीनेसे समस्त अतीसार, ग्रहणी-13
रीका दूध अतीसारनाशक औषधियोंके साथ सिद्धकर अथवा दोष, रक्तपिलशूल, रक्तार्श तथा प्रदररोग नष्ट होते |
कवल जलके साथ सिद्ध कर पीना चाहिये ॥ ९२ ॥ हैं ।॥ ८५-८८ ॥
वातशुद्धयुपायः। अनुक्त-जलमानपरिभाषा। बालं विल्वं गुडं तैलं पिप्पली विश्वभेषजम् । तुलाद्रव्ये जलद्रोणो द्रोणे द्रव्यतुला मता। ।
लिह्याद्वाते प्रतिहते सशूले सप्रवाहिके ।। ९३ ॥ जहांपर एक तुला द्रव्यका काथ बनाना हो, वहां एक जिसकी वायु न खुलती हो, शूलके सहित बारबार दस्त द्रोण जल छोड़ना चाहिये । इसी प्रकार एक द्रोण जलमें एक आते हों, उसे कच्चे बेलका गूदा, गुड़, तैल, छोटी पीपल तथा तुला द्रव्य छोड़ना चाहिये।
सोंठ मिलाकर चाटना चाहिये ॥ ९३ ॥
प्रवाहिकाचिकित्सा। षडङ्गवृतम् ।
__ पयसा पिप्पलीकल्कः पीतो वा मरिचोद्भवः । वत्सकस्य च बीजानि दाया॑श्च त्वच उत्तमाः ८९॥/ व्यहात्प्रवाहिका हन्ति चिरकालानुवन्धिनीम् ॥९४ पिप्पली शृंगेवरं च लाक्षा कटुकरोहिणी। । दूधके साथ पीपल अथवा काली मिर्चका कल्क तीन दिन षभिरेभिघृतं सिद्धं पेयं मण्डावचारितम ॥ पं.नेसे पुराना प्रवाहिकारोग नष्ट हो जाता है ॥ ९४ ॥ अतीसारं जयेच्छीघ्रं त्रिदोषमपि दारुणम ॥९॥ दन्नः सरोऽम्लः स्नेहाढयः खडा हन्यात्प्रवाहिकाम्।
| बिल्वोषणं गुडं लोधे तैलं लिह्यात्प्रवाहणे ॥ ९५॥ १ यद्यपि यहांपर चूर्ण पकाते समय ही छोड़ना लिखा है,/पर वह आसन्नपाक हो जानेपर ही छोड़ना चाहिये, यही शिव. १ इसी घृतमें कुटजकी छालका कल्क भी छोड़ दिया जाय दासजीका मत है । इसकी मात्रा ४ माशेसे ८ माशेतक है। तो " सप्तांग घत" हो जाता है । यदुक्त वैद्यप्रदीपे-"मण्डेन' शहद मिलाकर चाटना चाहिये।
पेयं तत्सर्पिः सप्तागं कुटजत्वचा"।