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(२३२) चक्रदत्तः।
[ मसूर्यजन्न्न्न्न्न्न्न् भांगके बीजोंको घीके साथ अथवा शिकटी (लताविशेष) की
वातजचिकित्सा। जड़के चूर्णको बासी जलके साथ अथवा कुन्दकी जड़को | अथवा देवनाकी जड़को अथवा कालीमिर्चमिलित पूतिकरज
तर्पणं वातजायां प्राग्लाजचूर्णैः सर्शकरैः ॥ १२ ॥ को मसूरिकाके दिखाई देनेपर बासी जलके साथ पीना भोजनं तिक्तयूषैश्च प्रतुदानां रसेन वा । चाहिये ॥५॥
द्विपञ्चमूलं रास्ना च दाटुंशीरं दुरालभा ॥१३॥
सामृतं धान्यकं मुस्तं जयेद्वातसमुत्थिताम् । मुष्टियोगपरिभाषा।
गुडूची मधुकं रानां पञ्चमूलं कनिष्ठकम् ॥ १४ ॥ उद्धृत्य मुष्टिमाच्छाद्य भेषजं यत्प्रयुज्यते । चन्दनं काश्मर्यफलं बलामूलं विकलकतम् । तन्मुष्टियोगमित्याहुर्मुष्टियोगपरायणाः ॥६॥ पाककाले मसूर्या तु वातजायां प्रयोजयेत् ॥ १५॥
औषधि उखाड़ मुट्ठी में बन्द कर रोगीको देना "मुष्टियोग' वातजन्य मसूरिकामें प्रथम शक्करके सहित खीलके चूर्णके कहा जाता है, ऐसा मुष्टियोगको जाननेवाले वैद्य कहते द्वारा तर्पण करावे । अथवा तिक्तयूष और प्रतुद (खजुरआदि)
प्राणियोंके मांसरसके साथ भोजन देना चाहिये । दशमूल,
रासन, दारुहल्दी, खश, यवासा, गुर्च, धनियां, नागरमोथा विविधा योगा।
इनका काथ वातज मसूरिकाको नष्ट करता है । तथा गुर्च, उष्ट्रकण्टकमूलं वाप्यनन्तामूलमेव वा । मौरेठी, रासन, लघुपञ्चमूल, चन्दन, खम्भारके फल खरेटीकी विधिगृहीतं ज्येष्ठाम्बु पीतं हन्ति मसूरिकाम् ॥७॥
जड़, कत्था इनके क्वाथका वातज मसूरिकाके समय प्रयोग तद्वच्छृगालकण्टकमूलं व्युषिताम्भसा युक्तम् । -
करना चाहिये ॥१२-१५॥ मसूरी मूञ्छितो हन्ति गन्धकार्धस्तु पारदः ॥८॥
पित्तजचिकित्सा। निशाचिञ्चाच्छदे शीतवारिपीते तथैव तु।
द्राक्षाकाश्मर्यखर्जूरपटोलारिष्ट मासकैः । यावत्संख्या मसूर्यङ्गे तावद्भिः शैलुजैर्दलैः ॥९॥
लाजामलकदुस्पशैंः सितायुक्तैश्च पैत्तिके ॥ १६ ॥ छिन्नैरातुरनाना तु गुटी व्येति न वर्धते ।
शिरीषोदुम्बराश्वत्थशेलुन्यग्रोधबल्कलैः । व्युषितं वारि सक्षौद्रं पीतं दाहगुटीहरम् ॥१०॥
प्रलेपः सघृतः शीघ्रं व्रणविस्फोटदाहहा ॥ १७ ॥ शेलत्वक्कृतशीताम्भःसेको वा कायशोषणे ।
दुरालभां पर्पटकं भूनिम्बं कटुरोहिणीम् । ऊंटकटारेकी जड़को अथवा अनन्तमूलकी जड़को चावलके श्लैष्मिक्यां पित्तजायां वापाने निष्क्वाथ्य दापयेत् १८ जलके साथ पीनेसे मसूरिका नष्ट होती हैं। इसी प्रकार शृगालकण्टक की जड़को बासी जलके साथ अथवा पारदसे आधा।
मुनक्का, खम्भार, छुहारा, परवल, नीमकी पत्ती, असा, गन्धक मिला कज्जली बनाकर सेवन करने अथवा हल्दी वा.
पाखील, आंवला तथा यवासाके क्वाथमें मिश्री मिलाकर पित्त
वा हल्दा वाजमें पीना चाहिये। तथा सिरसाकी छाल, गूलर, पीपल लसो. अम्लीकी पत्तीको ठण्ढे जलके साथ पीनेसे मसूरी नष्ट होती है।।
हर व बरगदकी छालको पीस घी मिला लेप करनेसे शीघ्र ही व्रण तथा शरीरमें जितनी मसूरिंकाएँ हों, उतने ही लसोढेके पत्तोको
काफफोले तथा दाह नष्ट होते हैं। तथा यवासा, पित्तपापड़ा, तोड़ रोगोंका नाम लेकर फेंक देनेसे मसूरिकाएँ नष्ट होती हैं।
चिरायता, व कुटकीका क्वाथ पित्तज अथवा श्लेष्मज-मसूरिइसी प्रकार बासी जलको शहदमें मिलाकर पीनेसे जलन और
लन आर कामें देना चाहिये ॥ १६-१८॥ मसूरिकाएँ नष्ट होती हैं । अथवा लसोढ़ेके पत्तोंका शीतकषाय जलनको शान्त तथा मसूरिकाओंका शोषण करता
निम्बादिक्काथः।
निम्बं पर्पटकं पाठां पटोले कटुरोहिणीम् । धूपाः।
वासां दुरालभां धात्रीमुशीरं चन्दनद्वयम् ।। १९ ।। उग्राज्यवंशनीलीयववृषकापोसकीकसब्राह्मी ॥१२॥ एष निम्बादिकः ख्यातः पीतः शर्करया युतः । सुरसमयूरकलाक्षाधूपो रोमान्तिकादिहरः। । हन्ति त्रिदोषमसूरी ज्वरवीसपेसम्भवाम् ॥ २०॥ बच, घी, बांस, नील, यव, अडूसा, कपासकी मींगी, ब्राह्मी,' उत्थिता प्रविशेद्या तु पुनस्तां बाह्यतो नयेत् ॥२१॥ तुलसी, अपामार्ग तथा लाखकी धूप रोमान्तिकाको नष्ट नीमकी छाल, पित्तपापड़ा, पाढ़, परवल, कुटकी, अडूसा, करती है ॥११॥
यवासा, आंवला, खश तथा दोनों चन्दनका क्वाथ, निम्बादि