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धिकारः]
भापारीकोपेतः।
(२३)
जहांपर स्नेहविधानमें पञ्चप्रभृति ( पांच या इससे अधिक) चतर्थाश नीचे लिखी ओषधियोंका कल्क बना छोड़कर पाक दव द्रव्य हो, वहां प्रत्येक स्नेहके समान छोड़ना चाहिये । इससे करना चाहिये । कल्ककी ओषधियां-पिपरामूल, मुनक्का, लाल कम अर्थात् चार या तीन आदि हों तो स्नेहसे चतुगुणा छोड़ना | चन्दन नीलोफर
हना | चन्दन, नीलोफर व सोंठ है । यह घृत जीर्णज्वरको
मोर चाहिये ॥ २४९ ॥ २५०॥
| करता है ॥ २५१ ॥ २५२ ॥ वासाद्यं घृतम् ।
गुडूच्यादिघृतपञ्चकम् । पासां गुडुची त्रिफलां त्रायमाणां यवासकम् । पक्त्वा तेन कषायेण पयसा दिगणेन च ॥२५॥गुडूच्याः काथकल्काभ्या त्रिफलाया वृषस्य च । पिप्पलीमलमृद्धीकाचन्दनोत्पलनागरैः।।
मृद्वीकाया बलायाश्च सिंद्धाः स्नेहा ज्वरच्छिदः ॥२५३॥ कल्कीकृतैश्च विपचेद् घृतं जीर्णज्वरापहम् ॥२५२॥ पृथक् २ गुर्च, त्रिफला, अडूसा, मुनक्का अथवा बरियारीके
अडूसा, गुर्च, त्रिफला, त्रायमाण, यवासा-इनका क्वाथ क्वाथ कल्कसे सिद्ध घृत ज्वर नाशक होते हैं ॥२५३ ॥ स्नेहसे चतुर्गुण, दूध द्विगुणा तथा घृत १ भाग तथा घृतसे
पेयादिदानसमयः। १ इस परिभाषामें अनेक सन्देह तथा मतभेद हैं । यदि ज्वरे पेयाः कषायाश्च सर्पिः क्षीरं विरेचनम् । । प्रत्येक स्थानमें “चतुर्गुणं त्वष्टगुणम्" परिभाषा लगे तो| । षडहे षडहे देयं कालं वीक्ष्यामयस्य च ॥ २५४ ॥ क्वाथ्यद्रव्यसे जल भी अष्ट गुण ही छोडना पड़ेगा, तथा|
ज्वरमें पेयो (लंघन या यवागू) क्वाथ, घृत, दूध, विरेचन "पादस्थं स्याच्चतुर्गुणम् " इसमें स्नेह तथा द्रव दोनों ही
छः छः दिनके अनन्तर देना चाहिये तथा रोगका काल देखकर द्रय द्रव्य होनेसे कोई विशेषता न होगी, पर क्वाथ्य स्नेहसे | आधा पड़ेगा । पर यह द्रवद्वैगुण्यकी परिभाषा कुड़वके अनन्तर।
विशेष व्यवस्था करनी चाहिये ॥ २५४ ॥ ही लगेगी, पहले नहीं । यथा-" आर्द्राणां च द्रवाणां च द्विगुणाः - क्षीरदानसमयः। कुड़वादयः" इस सिद्धान्तसे कुड़व आदि शब्दके प्रयोगसे जहां मानका वर्णन होगा, वहीं द्विगुण लिया जायगा, पर कहीं
जीर्णज्वरे कफे क्षीणे क्षीरं स्यादमृतोपमम् । इन शब्दोंका प्रयोग न होनेपर भी विवक्षा कर द्विगुण लेते हैं।। तदेव तरुणे पतिं विषवद्धान्ति मानवम् ॥ २५५॥ इसी प्रकार पञ्चप्रभृति भी अनेक विमतोंसे पूर्ण हैं । कुछ वैद्योंका। | जीर्णज्वरमें कफके क्षीण होजानेपर दूध अमृतके तुल्य गुणसिद्धान्त है कि जहां पांच या पांचसे अधिक द्रव द्रव्य हों, वहां दायक होता है, वही तरुणज्वरमें विषके तुल्य मारक हो जाता प्रत्येक स्नेहके समान लेना चाहिये और जहां पांचसे कम हों, है ॥ २५५॥ वहां सब मिलकर स्नेहके चतुर्गुण लेना चाहिये। कुछका सिद्धान्त है कि पांचसे पूर्व द्रव्यद्रव्योंमें प्रत्येक स्नेहसे चतुर्गुण और पांचसे |
पञ्चमूलीपयः। प्रत्येक स्नेहके समान लेना चाहिये । क्योंकि यदि पूर्वके मिलकर | कासाच्छ्वासाच्छिरःशूलात्पार्श्वशुलात्सपीनसात् । चतुर्गुण लिये जाते, तो जहां चार द्रव द्रव्य होते, वहां प्रत्येक मुच्यते ज्वरितः पीत्वा पञ्चमूलीशृतं पयः ॥ २५६ ।। स्नेहके समान लेनेसे स्नेहसे चतुर्गुण होही जाते, फिर पञ्चप्रभृति | पञ्चमूल (लघु ) से सिद्ध किये हुए दूधके पीनेसे कास, श्वास, लिखना व्यर्थ ही है, चतुष्प्रभृति ही लिखना चाहिये। पर कुछ | शिरःशुल, पार्श्वशुल तथा पुराने ज्वरसे मनुष्य मुक्त हो जाता आचायोंने इसी से" चतुष्प्रभृति यत्र स्वाणि स्नेहसंविधौ "है॥२५६ ॥ यही निश्चित पाठ माना है। मेरे विचारसे तो पाठपरिवर्तनसे | भी यह विषय स्पष्ट नहीं हो जाता । क्योंकि मिलकर चतुर्गुण
क्षीरपाकविधिः। हो, यह अर्थ किसी शब्दसे या भावसे नहीं आता । प्रत्युत) द्रव्यादष्टगुणं क्षीरं क्षीरानीरं चतुर्गुणम् । स्नेहसमानि ' से प्रत्येकका आकर्षण करना ही पड़ेगा । अन्यथा क्षीरावशेषः कर्तव्यःक्षीरपाके त्वयं विधिः॥२५७॥ वहां भी मिलित ही स्नेहके समान लिये जायेंगे, पर यह किसीको अभीष्ट नहीं हैं, अतः वह प्रत्येक अर्वाक्के साथ भी अन्वित १‘पेया' शब्द लंघनादिका उपलक्षण है। जिन ज्वरों होगा, इस प्रकार पांचसे कममें जहां विशेष विधि निषेध न हों, वातादिजन्य ) में लंघनका निषेध है, उनमें पेया आदि तथा वहां प्रत्येक चतुर्गुण पांच तथा पांचसे अधिक द्रवद्रव्योंमें प्रत्येक शेष में ६ दिन लंघन कराकर सातवें दिन हलका पथ्य दे। स्नेहके समान लेना चाहिये । इस विषयमें और भी लिखा जा ज्वरको निराम समझकर आठवें दिन काथ पिलाना चाहिये । सकता है. पर विस्तार करना अभीष्ट नहीं । बुद्धिमानोंको स्वयं निरामता विशेषतया आठवें दिन ही होती है। अतः उसी दिन निर्णय करना चाहिये।
काथ पिलाना उचित है।