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चक्रदत्तः।
[विषा
रजनीसैन्धवक्षौद्रसंयुक्तं घृतमुत्तमम् ।
पुरधूपपूर्वमर्कच्छदमिव पिष्ट्वा कृतो लेपः ॥ २१ ॥ पानं मूलविषार्तस्य दिग्धविद्धस्य चेष्यते ॥१५॥ जीरकस्य कृतः कल्को घृतसैन्धवसंयुतः। विष पी लेनेपर, वमन तथा त्वचामें लग जानेपर शीतल
सुखोष्णो वृश्चिकार्तानां सुलोपो वेदनापहः ।। २२ ॥ लेप या सेक करना चाहिये । तथा कण्ठतक पहुँचे बिषमें कच्चे
अमलाघर्षणं दंशे कण्टकं च तदुद्धरेत् । कैथेके गूदेको मिश्री व शहदके साथ मिलाकर चटाना चाहिये। करणे विषजे लेपात्फणिजकरसोऽथवा ।। २३ ॥ तथा आमाशयगत विषमें तगरका चूर्ण ४ तो० शहद व जो कसौंदके पत्तोंको मुखमें चबाकर कानमें फूंकता है, मिश्री मिलाकर चाटना चाहिये । तथा पक्वाशयगत विषमें वह बिच्छके विषको शीघ्रही नष्ट करता है । तथा बिच्छूके छोटी पीपल, हल्दी, दारुहल्दी, व मजीठ समान भाग ले दशके ऊपर तुलसीके जड़की गोली घुमानेसे बिच्छूका विष गोपित्तमें पीसकर पीना चाहिये । तथा जो मूलविषसे पीड़ित शीघ्रही उतर जाता है। ऐसे ही गुग्गुलुकी धूप देकर है, अथवा जो विष लिप्तशस्त्रसे विंध गया है, उसे हल्दी व आकके पत्तोंका लेप लाभ करता है । तथा जीरेके कल्कमें घी व सेंधानमकका चूर्ण शहद व उत्तम घी मिलाकर पिलाना सैधानमक मिला गरम कर दंशपर गुनगुना लेप करनेसे धृश्चिकचाहिये ॥ १२-१५॥
विषकी पीड़ा शान्त होती है। ऐसे ही दशके कांटेको संयोगजविषचिकित्सा ।
निकालकर निर्मलीका घिसना लाभ करता है । अथवा मरुवाके
रसका दशके ऊपर लेप करनेसे लाभ होता है ॥ २२-२३ ॥ सितामधुयुतं चूर्ण ताम्रस्य कनकस्य वा । लेहः प्रशमयत्युग्रं सर्व संयोगजं विषम् ।। १६ । । गोधादिविषचिकित्सा । अङ्कोटमूलनिष्काथफाणितं सघृतं लिहेत् ।।
कुङ्कुमकुनटीकर्कटपलहरितालैः तैलाक्तः स्विनसागो गरदोषविषापहः ॥ १७ ॥
कुसुम्भसंमिलितः । ताम्र अथवा सोनेकी भस्मको मिश्री व शहद मिलाकर चाटनेसे समस्त संयोगज विष नष्ट होते हैं। तथा अंको
कृतगुडिकाभ्रामणतो
विदष्टगोथासरटविषजित् ॥ २४॥ हरकी जड़के क्वाथको गाढ़ा कर घी मिला चाटने तथा तैलकी | मालिश कर समस्त शरीरके स्वेदन करनेसे गरदोष और केशर, मनशिल, केकड़ेके मांस, हरिताल तथा कुसुम्भके विष नष्ट होते हैं ॥ १६ ॥ १७ ॥
फूल मिलाकर बनायी गयी गोली दंशपर फेरनेसे गोह या गिर.
गिटका विष नष्ट होता है ॥ २४ ॥ कीटादिविषचिकित्सा।
__ मीनादिविषचिकित्सा । . कटभ्यर्जुनशैरीयशेलुक्षीरिद्रुमत्वचः।
अङ्कोटपत्रधूमो मीनविषं झटिति विघटयेच्छृङ्गी । कषायचूर्णकल्काः स्युः कीटलूताव्रणापहाः ॥१८॥
गोधावरटीबिषमिव लेपेन कुटजकपालिजटा।।२५।। मालकांगनी, अर्जुन, कटसैला, लसोढा और दूधवाले वृक्षोंकी छालका कषाय अथवा चूर्ण अथवा कल्कमेंसे किसी अंकोहरके पत्तोंका धुआं शीघ्रही मीनविषको नष्ट करता एकका सेवन करनेसे कीड़े, मकड़ी आदिके व्रण शान्त है । तथा काकड़ाशिङ्गीका लेप भी यही गुण करता है । जैसे होते हैं ॥ १८॥
कि कुरैयाकी छाल और नरियलको जटासे गोह और वर्रका विष
नष्ट होता है ॥ २५॥ मूषकविषचिकित्सा। . आगारधूममञ्जिष्ठारजनीलवणोत्तमैः।
__ श्वविषचिकित्सा! लेपो जयत्याविषं कर्णिकायाश्च पातनम् ॥ १९ ॥ कनकोदुंबरफलमिव तण्डुलजलपिष्टं पीतमपहरति । गृहधूम, मजीठ, हल्दी और सेंधानमकको पीसकर लगाया कनकदलद्रवघृतगुडदुग्धपलैकं शुनां गरलम् ॥२६॥ गया लेप कर्णिका ( गांठ ) को गिराता तथा मूषकविषको धतूरा और गूलरके फल चावलके जलमें पीसकर पानसे या शान्त करता हे ॥१९॥
धतुरेके पत्तोंका रस घी, गुड़ व दूध मिलाकर ४ तोला पीनेसे वृश्चिकचिकित्सा ।
कुत्तेका जहर मिट जाता है ॥ २६ ॥ . यः कासमर्दपत्रं वदने प्रक्षिप्य कर्णफूत्कारम् । ।
भेकविषचिकित्सा। मनुजो ददाति शीघ्रं जयति विषं वृश्चिकानां सः२० लेप इव भेकगरलं शिरीषबीजैः स्तुहीपयःसिक्तैः । दंशे भ्रामणविधिना वृश्चिकविषहृत्कुठेरपादगुडिका।| हरति गरलं व्यहमशिताङ्कोटजटाकुष्ठसम्मिलिता।