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माशाका १ पल । सुश्रुतके सिद्धान्तसे १२ उड़दोंका १ माशा, पूर्णके समान अर्थात् चतुर्थांश स्नेह तथा क्याथ्यद्रव्यसे मानना ६४ माशाका १ पल होता है । यह पल पञ्च राक्तिके | चाहिये ॥ ७२-७४ ॥ बराबरवाले मासे ६४ माशेका होता है और चरकका आधे
विभिन्नाः क्वाथा। पलके बराबर होता है । चरकका पल १० रत्तीके माशेसे ६४ माशेका होता है और यही १.० रत्तीके माशेसे ६४ माशेका बिल्वादि पञ्चमूली च गुडूच्यामलके तथा । पल वैद्यलोग चिकित्सामें उपयुक्त करते हैं ॥ ६५-६८॥- कुस्तुम्बुरुसमो ह्येष कषायो वातिके ज्वरे ॥ ७५॥
पिप्पलीशारिवाद्राक्षाशतपुष्पाहरेणुभिः। वातज्वरचिकित्सा।
कृतः कषायः सगुडो हन्यात्पवनजं ज्वरम् ॥७६॥ बिल्वादिपञ्चमूलस्य क्वाथःस्याद्वातिके ज्वरे॥६९॥
गुडूची शारिवा द्राक्षा शतपुष्पा पुनर्नवा । पाचनं पिप्पलीमूलं गुडूची विश्वजोऽथवा ।
सगुडोऽयं कषायः स्याद्वातज्वरविनाशनः ॥ ७७ ॥ किराताब्दामृतोदीच्यबृहतीद्वयगोक्षुरैः ॥ ७० ॥
द्राक्षागुडूचीकाश्मर्यत्रायमाणाः सशारिवाः । सस्थिराकलशीविश्वैः क्वाथो वातज्वरापहः।।
निःक्वाथ्य सगुडं क्वाथं पिबेद्वातज्वरापहम्॥७८॥ राना वृक्षादनी दारु सरलं सैलवालुकम् ॥७१॥
शतावरीगुडूचीभ्यां स्वरसो यन्त्रपीडितः । कषायः शकेराक्षौद्रयुक्तो वातज्वरापहः।
गुडप्रगाढः शमयेत्सद्योऽनिलकृतं घरम् ॥ ७९ ॥ वातज्वरमें पाचनके लिये बिल्वादिपञ्चमूल (वेलकी छाल, बिल्वादि, पञ्चमूल, गुर्च, आमला तथा धनियांका क्वाथ सोनापाठा, खम्भार, पाढ़ल, अरणी) का क्वाथ अथवा पिप- वातज्वरको नष्ट करता है। छोटी पीपल, शारिवा, (अनन्तरामूल, गुर्च, सोंठका क्वाथ अथवा चिरायता नागरमोथा, मूल), मुनक्का, सौंफ, सम्भालू के बीज मिलाकर बनाया गया गुर्च, सुगंधवाला (नेत्रवाला), छोटी कटेरी, बड़ी कटेरी, क्वाथ गुडके साथ अथवा गुर्च, शारिवा मुनक्का, सौंफ, पुनर्नवा गोखुरू, शालिपर्णी, पृश्निपीका क्वाथ अथवा रासन, बान्दा, (सांठ) का काथ गुडके साथ अथवा मुनक्का, गुर्च, खम्भार, देवदारु, सरल, एलुवाका क्वाथ शकेरा व शहद मिलाकर त्रायमाण व शारिवाका क्वाथ, गुडके साथ वातज्वरको नष्ट देना चाहिये ॥ ६९-७१॥
करता है । इसी प्रकार शतावरी व गुर्चका यन्त्रसे दबाकर
|निकाला गया स्वरस २ तोला. गुड आधा तोला मिलाकर पीनेसे प्रक्षेपानुपानमानम् ।
वातज्वर शान्त होता है ॥७५-७९॥ प्रक्षेपः पादिकः क्वाथ्यात्स्नेहे कल्कसमो मतः७२,
. पित्तज्वरचिकित्सा। परिभाषामिमामन्ये प्रक्षेपेऽप्यचिरे यथा। कर्षश्चूर्णस्य कल्कस्य गुटिकानां च सर्वशः॥७३॥
कलिङ्गं कट्फलं मुस्तं पाठा सिक्तकरोहिणी ।
पक्वं सशर्करं पीतं पाचन पैत्तिके ज्वरे ॥ ८॥ द्रवशुक्त्या स लेढव्यः पातव्यश्च चतुर्द्रवः ।।
सैक्षौद्रं पाचनं पैत्ते तिक्ताब्देन्द्रयवैः कृतम् । मात्रा क्षौद्रघृतादीनां स्नेहक्वाथेषु चूर्णवत् ॥७४॥ काढमें प्रेक्षेप काढेकी ओषधियोंसे चतुर्थीश तथा स्नेह
लोध्रोत्पलामृतापद्मशारिवाणां सशर्करः ॥ ८१ ॥ (घृतादि) में कल्कसम “ कल्कस्तु स्नेहपादिकः " अर्थात्
क्वाथः पित्तज्वरं हन्यादथवा पर्पटोद्भवः । चतुर्थाश ही छोड़ना चाहिये । कुछ आचार्य अग्रिम परिभाषाको पटोलेन्द्रयवक्वाथो मधुना मधुरीकृतः भी प्रक्षेपविषयक मानते हैं। उसका इसका ऐक्य ही है विरोध तीव्रपित्तज्वरामर्दी पानात्तृड्दाहनाशनः ॥८२॥ नहीं। १ तोला औषध (चूर्ण, कल्क या गोली आदि)रतोला द्रव- दुरालभापर्पटकप्रियङ्गुद्रव्य मिलाकर चाटना चाहिये तथा ४ तोला द्रव्यद्रव्य मिलाकर भूनिम्बवासाकटुरोहिणीनाम् । पीना चाहिये तथा शहद और घीकी मात्रा स्नेह तथा क्वाथमें | जलं पिबेच्छकरयावगाढं
तृष्णास्रपित्तज्वरदाहयुक्तः॥८३॥ -जा सकता है। पर द्रवद्रव्योंके मान कुड़वके ऊपर प्रायः दुने | हो जाते हैं, अतएव द्रवद्रव्योंका प्रस्थ ६४२% १२८ कर्ष- १ जहां क्वाथकी प्रधानता हो वहां 'प्रक्षेपः' इत्यादि १२८ तोला = १ सेर ९ छ. ३ तो० लिखा जा सकता है। परिभाषा, और जहां चूर्णादिकी प्रधानता हो वहां 'कर्षश्चूर्णस्य . पर जहां दना मान न लिखा हो और द्रवद्वैगुण्यकी प्राप्ति हो कल्कस्य' इत्यादि परिभाषा समझना चाहिये । “ मात्रा क्षीदवहां दूना कर लेना चाहिये ॥
घृतादीनाम्" इत्यादि परिभाषा तो "प्रक्षेपः पादिकः" इसीको १ क्वाथादिमें जो कुछ सिद्ध होनेपर मिलाते हैं, उसे स्पष्ट करती है। प्रक्षेप कहते हैं।
२ शहदको काथके ठण्ठे हो जाने पर ही मिलाना चाहिये।