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धिकारः]
भाषाटीकोपेतः।
१ रत्ती, त्रिकटुचूर्ण १ रत्ती, वायविडंग , रत्ती, सब घृत: तथा (१) थूहरका दूध हलदीके चूर्णके साथ लेपकरनेसे अर्श को शहदसे मिलाकर चटाना चाहिये । इतनी मात्रा प्रथम दिन | नष्ट करता है। इसी प्रकार (२) कडुई तोरईका चूर्ण घिसनेसे देना चाहिये । फिर प्रतिदिन सब चीजें एक एक रत्ती बढ़ाना | मस्से कट जाते हैं। तथा (३) आकका दूध, थूहरका दूध, चाहिये, केवल वायविडंग न बढ़ाना चाहिये। पर यदि कब्जि- कडुई तोम्बीके पत्ते तथा कजाके बीज-सब बकरके मूत्रमें यत या अफारा आदि हो, तो विरेचनके लिये वायविडंग २] पीसकर लेप करनेसे मस्से नष्ट होते हैं । तथा(४)गुड़ व कडुई रत्ती छोड़ना चाहिये। इस प्रकार १२ दिन तक एक एक तोरईकी बत्ती बनाकर गुदामें लेप करनेसे अर्शके मस्से नष्ट रत्ती बढ़ाना चाहिये, और इसी प्रकार फिर एक एक रत्ती कम होते हैं । तथा कडुई तोरईकी जड़का कल्क लेप करनेसे करना चाहिये। यह ग्रहणी, अम्लपित्त, क्षय तथा शूलको 'रक्तार्श' को नष्ट करता है । कड़ई तोम्बीके बीज व खारीनष्ट करता है, बल, वर्ण तथा अग्मिको दीप्त करता नमक अथवा साम्भरनमक समान भाग ले काजीमें पीस है॥ ९२-९८॥
| गोली बनाकर गुदामें रखनेसे तीन गोलीमें ही बवासीर इति ग्रहण्यधिकारः समाप्तः। . नष्ट होता है । इस प्रयोगमें भैंसीके दहीका पथ्य लेना
चाहिये ॥४-७॥ अथार्शोऽधिकारः।
लिङ्गार्शसि लेपः।
अपामार्गाविजः क्षारो हरितालेन संयुतः। अर्शसाश्चिकित्साभेदाः।
लेपनं लिङ्गासम्भूतमी नाशयति ध्रुवम् ॥ ८॥
अपामार्ग (लटजीरा) की जड़का क्षार तथा हरताल एकमें दुर्नाम्नां साधनोपायश्चतुर्धा परिकीर्तितः।
घोटकर लेप करनेसे “लिङ्गार्श" नष्ट होता है॥८॥ भेषजक्षारशस्खाग्निसाध्यत्वादाद्य उच्यते॥१॥ । अर्श (१) औषध, (२)क्षार, (३) शस्त्र तथा (४) अमि इन
__अपरो लेपः। चार उपायोंसे अच्छा होता है , इनमें प्रथम औषधका | ___ महाबोधिप्रदेशस्य पथ्या कोशातकीरजः । वर्णन करते हैं ॥१॥
कफेन लेपतो हन्ति लिंगवर्तिमसंशयम् ॥९॥ यद्वायोरानुलोम्याय यदग्निबलवृद्धये।
छोटी हर्र, कडुई तोरई, समुद्रफेन तीनों महीन पीस
|पानीके साथ लेप करनसे 'लिङ्गार्श' निःसन्देह नष्ट होता अनुपानौषधद्रव्यं तत्सेव्यं नित्यमर्शसैः ।। २॥ पानी जिससे वायुका अनुलोमन तथा अग्नि व बलकी वृद्धि हो, वह अनुपान तथा औषध अर्शवालोको सदैव सेवन करना
विशेषव्यवस्था। चाहिये ॥२॥
| वातातीसारवद्भिन्नवास्यास्युपाचरेत् । शुष्कार्शसां प्रलेपादिक्रिया तीक्ष्णा विधीयते । । उदावर्तविधानेन गाढविट्कानि चासकृत् ॥ १०॥ स्राविणां रक्तमालोक्य क्रिया कार्यास्रपैत्तिकी ।।३।। बवासीरके साथ यदि दस्त आते हों, तो अतीसारके बवासीरके सूखे मस्सोंमें तीक्ष्ण लेपादि करना चाहिये, तथा समान और यदि कड़े दस्त आते हों, तो उदावर्तके समान रक्त वहन करनेवाले मस्सों में रक्तपित्तनाशक लेपादि करना | चिकित्सा करनी चाहिये ॥१०॥ चाहिये ॥३॥
तक्रप्राधान्यम् । अर्शोघ्नलेपाः।
विविबन्धे हितं तक्रं यमानीविडसंयुतम् । क्स्नुक्षीरं रजनीयुक्तं लेपाद् दुर्नामनाशनम् । वातश्लेष्मासां तक्रात्परं नास्तीह भेषजम् ॥११॥ कोशातकीरजोघर्षानिपतन्ति गुदोद्भवाः ॥ ४ ॥
तत्प्रयोज्यं यथादोषं सस्नेहं रूक्षमेव वा । अर्कक्षीरं सुधाक्षीरं तिक्ततुम्ब्याश्च पल्लवाः।
न विरोहति गुदजाः पुनस्तक्रसमाहताः ॥१२॥ कर जो वस्तमूत्रेण लेपनं श्रेष्ठमर्शसाम् ॥ ५॥
मनकी रुकावटमें अजवाइन तथा विडनमक युक्त मट्ठा अशॉनी गुदगा वर्तिर्गुडघोषाफलोद्भवा । पिलाना चाहिये । वातकफ-जन्य अर्शके लिये मढेसे बढ़कर ज्योस्निकामूरकल्केन लेपो रक्तः शंसां हितः॥६॥ तुम्बीबीजं मोद्भिदं तु काजीपिष्टं गुटोत्रयम् । । १ तक्रळक्षणम् ।-" दधि प्रमथितं पादजलोपेतं सरोज्झितम् । अर्शोहरं गुदस्थं स्यादधि माहिषमतः॥७॥ तक्रमत्र समाख्यातं त्रिदोषशमनं परम् । अरुचौ विड्विबन्धे च