________________
धिकारः ]
भाषretarinः ।
सरलधूप, अगर, कूठ, देवदारु तथा सोंठका चूर्ण गोमूत्र और काजी मिलाकर पीने से सूजनको नष्ट तथा कफवातको दूर करता है ॥ १५ ॥
पथ्यायोगः ।
१६ ॥
भृष्टो रुबुकतैलेन कल्कः पध्यासमुद्भवः । कृष्णा सैन्धवसंयुक्तो वृद्धिरोगहरः परः ॥ छोटी हर्रका कल्क एरण्डतैलमें भून छोटी पीपल व सेंधानमक मिलाकर सेवन करनेसे बुद्धिरोग नष्ट होता है ॥ १६ ॥
आदित्यपाकघृतम् ।
गव्यं घृतं सैन्धवसंप्रयुक्तं शम्बूकभांडे निहितं प्रयत्नात् । सप्ताहमादित्यकरैर्विपक
निहन्ति कूरंडमतिप्रवृद्धम् ॥ १७ ॥ गाय का घी व सेंधानमक एकमें मिला घोंघों ( क्षुद्र शेखों ) में रखकर ७ दिनतक सूर्यके तापमें पकाकर मालिश करने तथा खानेसे अण्डवृद्धि नष्ट होती है ॥ १७ ॥
ऐन्द्री चूर्णम् ।
ऐन्द्री मूलभवं: चूर्ण रुबुतैलेन मर्दितम् । यहाद्गोपयसा पीतं सर्ववृद्धिनिवारणम् ॥ १८ ॥ इन्द्रायणकी जड़के चूर्णको एरण्डतैलके साथ घोटकर ३ दिन गोदुग्धके साथ पीनेसे हर प्रकारका बुद्धिरोग नष्ट होता है ॥ १८ ॥
रुद्रजटालेपः । रुद्रजटामूललिप्ता करटव्यङ्कचर्मणा ।
बद्धा वृद्धिः शमं याति चिरजापि न संशयः ॥ १९ ॥ ईश्वरी ( रुद्रजटा ) की जड़को पीस लेप कर ऊपरसे वृक्षमूबिका ( गिलहरी) के चमड़ेको बान्धनेसे पुरानी भी अण्डवृद्धि शांत हो जाती है, इसमें सन्देह नहीं ॥ १९ ॥
अन्ये लेपाः ।
निष्पिष्टमारनालेन रूपिकामूल वल्कलम् । लेपो वृद्धधामयं हन्ति बद्धमूलमपि दृढम् ॥ २० ॥ वचासर्षपकल्केन प्रलेपो वृद्धिनाशनः । लज्जागृध्रमलाभ्यां च लेपो वृद्धिरः परः ॥ २१ ॥ काजी के साथ पिसी हुई सफेद आककी जड़की छालका लेप पुरानी अण्डवृद्धिको नष्ट करता है । तथा बच व सरसों के कल्कका लेप वृद्धिको नष्ट करता है । इसी प्रकार सफेद लज्जावती व गृध्रके वीटको लेप करनेसे अण्डवृद्धि नष्ट करती है ॥ २०-२१ ॥
( १८९१
विल्वमूलादिचूर्णम् ।
मूलं बिल्वकपित्थयोररलुकस्याग्ने बृहत्योर्द्वयोः श्यामापूतिकरञ्जशिशुकतरोर्विश्वौषधारुष्करम् । कृष्णाग्रन्थिकचव्यपभ्वलवणक्षाराजमोदान्वितं पीतं काञ्जिककोणतोयमथितं चूर्णीकृतं ब्रध्ननुत् २२ बेल, कैथा, सोनापाठा, चीत, छोटी बड़ी कटेरी, निसोथ काला, पूतिकरञ्ज और सहिजन प्रत्येककी जड़की छाल, सोंठ, भिलावां, छोटी पीपल, पिपरामूल, चव्य, पांचों नमक, क्षार और अजमोदका चूर्ण कर काजी और गरम जलमें मेला पनेिसे ब्रध्नरोग ( बद ) नष्ट होता है ॥ २२ ॥
रोगस्य विशिष्टचिकित्सा ।
अविक्षीरेण गोधूमकल्कं कुन्दुरुकस्य वा । प्रलेपनं सुखोष्णं स्याद् ब्रघ्नशूलहरं परम् ।। २३ ॥ मृतमात्रे तु का विशस्ते संप्रवेशयेत् । ..
धनं मुहूर्त मेधावी तत्क्षणादरुजं भवेत् ॥ २४ ॥ अजाजी हपुषा कुष्ठं गोधूमं बदराणि च । काश्ञ्जिकेन समं पिष्ट्वा कुर्याद् ब्रघ्नप्रलेपनम् ॥ २५॥ भेड़ के दूध के साथ गेहूँ के कल्क अथवा गन्धाविरोजेके कल्कक 1 कुछ गरम गरम लेप करनेसे बदरोग नष्ट होता है । तथा मरे हुए काकको चीरकर बदके ऊपर थोड़ी देर लगा देनेसे ही यह रोग नष्ट गेहूँ और बेरको काजी के साथ पीसकर बदके ऊपर लेप करना जाता है । अथवा जीरा, हाऊबेर, कूठ चाहिये ॥ २३-२५ ॥
सैन्धवाद्यं तैलम् ।
सैन्धवं मदनं कुष्ठं शताह्नां निचुलं वचाम् । बेरं मधुकं भाङ्ग देवदारु सनागरम् ।। २६ । कट्फलं पौष्करं मेदां चविकां चित्रकं शठीम् । विडङ्गातिविषे श्यामां रेणुकां नलिनीं स्थिराम् २६ ॥ बिल्वाजमोदे कृष्णां च दन्तीरास्त्रे प्रपिष्य च । साध्यमेरण्डजं तैलं तैलं वा कफवातनुत् ॥ २८ ॥ ब्रध्नोदावर्त गुल्मार्शःल्पीह मेहाढधमारुतान् । आनाहमश्मरी चैव हन्यात्तदनुवासनात् । घृतं सौरेश्वरं योज्यं ब्रध्नवृद्धिनिवृत्तये ॥ २९ ॥
सेंधानमक, मैनफल, कूठ, सौंफ, जलवेत, बच, सुगन्धवाला, मौरेठी, भाङ्ग, देवदारु, सोंठ, कायफल, पोहकरमूल, मेदा, चव्य, चीतकी जड़, कचुर, वायविडङ्ग, अतीस, निसोथ, सम्भालूके बीज, कमलिनी, शालिपर्णी, बेल, अजमोद, छोटी पीपल, दन्ती तथा रासनका कल्क छोड़कर सिद्ध किया गया एरण्डतैल अथवा तिल तैल कफ, वातरोग, बद,