________________ अनादिकाल से कर्म सम्बन्ध वाला होने से मूर्तवत् हो जाने के कारण मूर्त कर्मपुद्गलों को ग्रहण करता है। जैसे दीपक बत्ती के द्वारा तेल को ग्रहण कर के अपनी उष्णता से उसे ज्वालारूप में परिणत कर लेता है। वैसे ही जीव काषायिक विकार से योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर के उन्हें कर्मरूप में परिणत कर लेता है। आत्मप्रदेशों के साथ कर्मरूप परिणाम को प्राप्त पुद्गलों का यह सम्बन्ध ही 'बन्ध कहलाता है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, ये पांच रबन्धहेतु हैं। मिथ्यात्व का अर्थ है-मिथ्यादर्शन। यह सम्यग्दर्शन से उलटा होता है। मिथ्यादर्शन दो प्रकार का होता है। पहला वस्तुविषयक यथार्थ श्रद्धान का अभाव और दूसरा वस्तु का अयथार्थ श्रद्धान। पहले और दूसरे में फ़र्क इतना है कि पहला बिल्कुल मूढ़दशा में भी हो सकता है जबकि दूसरा विचारदशा में ही होता है। विचारशक्ति का विकास होने पर भी जब अभिनिवेश-आग्रह के कारण किसी एक ही दृष्टि को पकड़ लिया जाता है, तब विचारदशा के रहने पर भी अतत्त्व में पक्षपात होने से वह दृष्टि मिथ्यादर्शन कहलाती है। यह उपदेशजन्य होने से अभिगृहीत कही जाती है। जब विचारदशा जागृत न हुई हो तब अनादिकालीन आवरण के भार के कारण सिर्फ मूढ़ता होती है, उस समय जैसे तत्त्व का श्रद्धान नहीं होता वैसे अतत्त्व का भी श्रद्धान नहीं होता, इस दशा में सिर्फ मूढ़ता होने से तत्त्व का अश्रद्धान कह सकते हैं, वह नैसर्गिक-उपदेशनिरपेक्ष होने से अनभिगृहीत कहा गया है। दृष्टि या पन्थ सम्बन्धी जितने भी ऐकान्तिक कदाग्रह हैं वे सभी अभिगृहीत मिथ्यादर्शन हैं जो कि मनुष्य जैसी विकसित जाति में हो सकते हैं और दूसरा अनभिगृहीत तो कीट, पतंग आदि जैसी मूर्च्छित चैतन्य वाली जातियों में संभव है। अविरति दोषों से विरत न होने का नाम है। प्रमाद का मतलब हैआत्मविस्मरण अर्थात् कुशल कार्यों में आदर न रखना, कर्त्तव्य, अकर्त्तव्य की स्मृति के लिए सावधान न रहना। कषाय अर्थात् समभाव की मर्यादा का तोड़ना। योग का अर्थ है-मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति / ये जो कर्मबन्ध के हेतुओं का निर्देश है वह सामान्यरूप से है। यहां प्रत्येक मूलकर्मप्रकृति के बन्धहेतुओं का वर्णन कर देना भी प्रसंगोपात्त होने से आवश्यक -- 1. सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः। (तत्त्वा० 8 / 2) 2. मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगबन्धहेतवः। (तत्त्वा० 8 / 1) 3. बन्ध के हेतुओं की संख्या के बारे में तीन परम्पराएं देखने में आती हैं। एक परम्परा के अनुसार कषाय और योग ये दोनों ही बन्ध के हेतु हैं। दूसरी परम्परा मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इन चार बन्धहेतुओं की है। तीसरी परम्परा उक्त चार हेतुओं में प्रमाद को और बढ़ाकर पांच बन्धहेतुओं का वर्णन करती है। इस तरह से संख्या और उसके कारण नामों में भेद रहने पर भी तात्त्विकदृष्ट्या इन परम्पराओं में कुछ भी भेद नहीं है। प्रमाद एक तरह का असंयम ही तो है, अतः वह अविरति या कषाय के अन्तर्गत ही है। इसी दृष्टि से कर्मप्रकृति आदि ग्रन्थों में सिर्फ चार बन्धहेतु कहे गए हैं। बारीकी से देखने पर मिथ्यात्व और असंयम ये दोनों कषाय के स्वरूप से अलग नहीं पड़ते, अतः कषाय और योग इन दोनों को ही बन्धहेतु गिनाना प्राप्त होता है। प्राकथन] श्री विपाक सूत्रम् [51