________________ अनादरणीय होता है। १०३-अयशःकीर्तिनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का संसार में अपयश और अपकीर्ति फैलती है। (7) गोत्रकर्म के दो भेद होते हैं। इनका संक्षिप्त पर्यालोचन निम्नोक्त है१-उच्चगोत्र-इस कर्म के उदय से जीव उत्तम कुल में जन्म लेता है। २-नीचगोत्र-इस कर्म के उदय से जीव नीच कुल में जन्म लेता है। धर्म और नीति की रक्षा के सम्बन्ध से जिस कुल ने चिरकाल से प्रसिद्धि प्राप्त की है, वह उच्चकुल कहलाता है। जैसे कि इक्ष्वाकुवंश, हरिवंश, चन्द्रवंश आदि। तथा अधर्म और अनीति के पालन से जिस कुल ने चिरकाल से प्रसिद्धि प्राप्त की है वह नीचकुल कहा जाता है। जैसे कि-वधिककुल, मद्यविक्रेतृकुल, चौरकुल आदि। (8) अन्तरायकर्म के 5 भेद होते हैं। इन का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है १-दानान्तरायकर्म-दान की वस्तुएं मौजूद हों, गुणवान् पात्र आया हो, दान का फल जानता हो, तो भी इस कर्म के उदय से जीव को दान करने का उत्साह नहीं होता। २-लाभान्तरायकर्म-दाता उदार हो, दान की वस्तुएं स्थित हों, याचना में कुशलता हो, तो भी इस कर्म के उदय से लाभ नहीं हो पाता। ३-भोगान्तरायकर्म-भोग के साधन उपस्थित हों, वैराग्य न हो, तो भी इस कर्म के उदय से जीव भोग्य वस्तुओं का भोग नहीं कर सकता है। जो पदार्थ एक बार भोगे जाएं उन्हें भोग कहते हैं। जैसे कि-फल, जल, भोजन आदि। ४-उपभोगांतरायकर्म-उपभोग की सामग्री अवस्थित हो, विरतिरहित हो, तथापि इस कर्म के उदय से जीव उपभोग्य पदार्थों का उपभोग नहीं कर पाता। जो पदार्थ बार-बार भोगे जाएं उन्हें उपभोग कहते हैं। जैसे कि-मकान, वस्त्र, आभूषण आदि। ५-वीर्यान्तरायकर्म-वीर्य का अर्थ है-सामर्थ्य / बलवान, रोगरहित एवं युवा व्यक्ति भी इस कर्म के उदय से सत्त्वहीन की भाँति प्रवृत्ति करता है और साधारण से काम को भी ठीक तरह से नहीं कर पाता। बन्ध और उस के हेतु-पुद्गल की वर्गणाएं-प्रकार अनेक हैं, उन में से जो वर्गणाएं कर्मरूप परिणाम को प्राप्त करने की योग्यता रखती हैं, जीव उन्हीं को ग्रहण करके निज आत्मप्रदेशों के साथ विशिष्टरूप से जोड़ लेता है अर्थात् स्वभाव से जीव अमूर्त होने पर भी 1. कर्मों की 158 उत्तरप्रकृतियों का स्वरूप प्रायः अक्षरशः पं० सुखलाल जी से अनुवादित कर्मग्रन्थ प्रथम भाग से साभार उद्धृत किया गया है। 50 श्री विपाक सूत्रम् .. . [प्राक्कथन