Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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षट्खंडागमकी प्रस्तावना
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Paisa दर्शनहीन इति चेत् तीर्थंकरपरमदेवप्रतिमांन मानयन्ति न पुष्पादिना पूजयन्ति ...... यदि जिनसूत्रमुलंघंते तदाऽऽस्तिकैर्युक्तिवचनेन निषेधनीयाः । तथापि यदि कक्षग्रहं न मुञ्चन्ति तदा समर्थैरास्ति कैरुपानद्भिः गूथालिप्ताभिर्मुखे ताडनीयाः, तत्र पापं नास्ति' ।
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अर्थात्, दर्शनहीन कौन है, जो तीर्थंकरप्रतिमा नहीं मानते, उसे पुष्पादिसे नहीं पूजते...... जब ये जिनसूत्रका उल्लंघन करें तत्र आस्तिकोंको चाहिए कि युक्तियुक्त वचनोंसे उनका निषेध करें, फिर भी यदि वे कदाग्रह न छोड़ें तो समर्थ आस्तिक उनके मुँहपर विष्टासे लिपटे हुए जूते मारें, इसमें जरा भी पाप नहीं । "
यह है श्रुतसागरजी की भाषासमिति और उनकी आप्तता । ऐसे द्वेषपूर्ण अश्लील वाक्य एक प्रामाणिक विद्वान् तो क्या साधारण शिष्ट व्यक्तिके मुखसे भी न निकल सकेंगे ।
अब वामदेवजीके भाव संग्रहको लीजिये जिसके ५४७ वें श्लोक ' नास्ति त्रिकालयोगो' आदिमें ग्यारहवीं प्रतिमाके धारी श्रावकको ' सिद्धान्त श्रवण ' के अधिकारसे वर्जित किया गया है। वामदेवजीका काल विक्रमकी १५ हवी या १६ हवीं शताब्दि अनुमान किया गया है, ' । उनकी ग्रंथरचना मौलिक नहीं है, किन्तु १० वीं शताब्दि के देवसेनाचार्य के प्राकृत भावसंग्रहका कुछ परिवर्धित संस्कृत रूपान्तर है । उनकी इस कृतिके विषयमें उस ग्रंथकी भूमिका में कहा गया हैयह भावसंग्रह प्रायः प्राकृत भावसंग्रहका ही संस्कृत अनुवाद है, दोनों ग्रंथोंको आमने सामने रखकर पढ़ने से यह बात अच्छी तरह समझमें आ जाती है । यद्यपि पं. वामदेवजीने इसमें जगह जगह अनेक परिवर्तन, परिवर्धन और संशोधन आदि किये हैं, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि यह स्वतंत्र ग्रंथ है । शिष्टताकी दृष्टिसे अच्छा होता, यदि पं. वामदेवजीने अपने ग्रंथ में यह बात स्वीकार कर ली होती । "
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इस परसे जाना जा सकता है कि वामदेवजी किस दर्जेके लेखक और विद्वान् थे । एक प्राचीन और प्रामाणिक आचार्यकी रचनाका उसका नाम लिये विना ही चुपचाप उसका रूपान्तर करके उन्होंने ग्रंथकार बनने का यश लूटा है । उसमें यदि उन्होंने कुछ परिवर्धन किया है तो वह उसी प्रकारका है जिसका एक उदाहरण हमारे सन्मुख है । उनसे कोई छहसौ वर्ष प्राचीन उक्त प्राकृत भावसंग्रह में ऐसे निषेधका नाम निशान तक नहीं है । अतएव स्पष्ट है कि वामदेवजीने १६ वीं शताब्दिके लगभग कहींसे यह बात जोड़ी है ।
अब इन्द्रनन्दिके नीतिसारान्तर्गत उपदेशको लीजिये । इसमें उक्त निषेधने और भी बड़ा उग्ररूप धारण किया है । यहां कहा गया है कि
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आर्यिकाणां गृहस्थानां शिष्याणामल्पमेधसाम् । न वाचनीयं पुरतः सिद्धान्ताचारपुस्तकम् ॥ अर्थात्, “ आर्यिकाओंके सामने, गृहस्थोंके सामने और थोड़ी बुद्धिवाले शिष्य मुनियोंके
१ भावसंग्रहादि ( मा. दि. जै. मं. ) भूमिका पू. ३
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