Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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सिद्धान्त और उनके अध्ययनका अधिकार
भणितं प्रतिपादितं ... यः पुमान् जानाति वेत्ति स पुमान् स्फुटं सम्यग्दृष्टिर्भवति । ... मिथ्यादृष्टिरिति ज्ञातव्यः | '
यहाँ श्रुतसागरजी स्वयं जिनोक सूत्रों के अर्थके ज्ञानको सम्यग्दर्शनका अत्यन्त आवश्यक अंग मान रहे हैं, और उस ज्ञानके बिना मनुष्य मिथ्यादृष्टि रहता है यह भी स्वीकार कर रहे हैं । वे ' पुमान् ' शब्द के उपयोग से यह भी स्पष्ट बतला रहे हैं कि जिनोक्त सूत्रोंका अर्थ समझना केवल मुनिराजोंके लिये ही नहीं, किन्तु मनुष्यमात्र के लिये आवश्यक है । ऐसी अवस्थामें वे सिद्धान्त ग्रंथोंको जिनोक्त सूत्रोंसे बाहर समझकर श्रावकों को उन्हें पढ़नेका निषेध करते हैं, या श्रावकको मिध्यादृष्टि बनाना चाहते ह, यह उनकी स्वयं परस्पर विरोधी बातोंसे कुछ समझ में नहीं आता । इससे स्पष्ट है कि उस निषेधवाली बातका न तो भगवान् कुंदकुंदाचार्य के वाक्योंसे सामञ्जस्य बैठता है, और न स्वयं टीकाकारके ही पूर्व कथनों से मेल खाता है । श्रुतसागरजीका समय विक्रमकी सोलहवीं शताब्दि सिद्ध होता है ' । श्रुतसागरजी कैसे लेखक थे और उनकी पटूपाहुड कैसी कैसी रचना है इसके विषय में एक विद्वान् समालोचकका मत देखिये ।
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"वे ( श्रुतसागरजी ) कट्टर तो थे ही, असहिष्णु भी बहुत ज्यादा थे । अन्य मतका खंडन और विरोध तो औरोंने भी किया है, परन्तु इन्होंने तो खण्डनके साथ बुरी तरह गालियाँ भी दी हैं । सबसे ज्यादा आक्रमण इन्होने मूर्तिपूजा न करनेवाले लोंकागच्छ ( ढूंढियों ) पर किया है । जरूरत गैरजरूरत जहां भी इनकी इच्छा हुई है, ये उनपर टूट पड़े हैं । इसके लिये उन्होंने प्रसंगकी भी परवा नहीं की । उदाहरण के तौरपर हम उनकी षट्पाहुडटीका को पेश कर सकते हैं । षट्पाहुड भगवत्कुंदकुंदका ग्रंथ है, जो एक परमसहिष्णु, शान्तिप्रिय और आध्यात्मिक विचारक थे । उनके ग्रंथों में इस तरहके प्रसंग प्रायः हैं ही नहीं कि उनकी टीकामें दूसरों पर आक्रमण किये जा सकें, परंतु जो पहलेसे ही भरा बैठा हो, वह तो कोई न कोई बहाना ढूंढ ही लेता है | दर्शनपाहुडकी मंगलाचरणके बाद की पहली ही गाथा है
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सूत्रार्थपद विनष्टः पुमान्
दंसणमूलो धम्मो उवहट्ठो जिणवरेहिं सिस्साणं । सोऊण सकण्णे दंसणहीणो ण वंदिन्वो ॥ इसका सीधा अर्थ है कि जिनदेवने शिष्योंको उपदेश दिया है कि धर्म दर्शनमूलक है, इसलिये जो सम्यग्दर्शनसे रहित है उसकी वंदना नहीं करनी चाहिये । अर्थात्, चारित्र तभी वन्दनीय है जब वह सम्यग्दर्शन से युक्त हो ।
इस सर्वथा निरुपद्रव गाथाकी टीकामें कलिकालसर्वज्ञ स्थानकवासियोंपर बुरी तरह बरस पड़ते हैं और कहते हैं
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१ षट्प्राभृतादिसंग्रह ( मा. अं, मा.) भूमिका पृ. ७.
२ जैनसाहिल और इतिहास, पं. नाथूरामप्रेमी कृत पू. ४०७-४०८.
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