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• अर्चयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . मी [ संक्षिप्त पयपुराण
त्याग कर चुकते हैं, पवित्र स्थानमें निवास करते हैं, जो अगस्त्य, सप्तर्षि, मधुच्छन्दा, गवेषण, साति, सुदिव, बुद्धि-बलसे सम्पन्न तथा सत्य, शौच और क्षमा आदि भाण्डि, यवप्रोथ, कृतश्रम, अहोवीर्य, काम्य, स्थाणु, सद्गुणोंसे युक्त हैं, उन पुरुषोंके कल्याणमय नियमोंका मेधातिथि, बुध, मनोवाक, शिनीवाक, शून्यपाल और वर्णन सुनो । प्रत्येक द्विजको अपनी आयुका तीसरा भाग अकृतश्रम-ये धर्म-तत्त्वके यथार्थ ज्ञाता थे। इन्हें वानप्रस्थ-आश्रममें रहकर व्यतीत करना चाहिये। धर्मके स्वरूपका साक्षात्कार हो गया था। इनके सिवा, वानप्रस्थ-आश्रममें भी वह उन्हीं अग्नियोंका सेवन करे, धर्मकी निपुणताका ज्ञान रखनेवाले, उग्रतपस्वी ऋषियोंके जिनका गृहस्थ-आश्रममें सेवन करता था। देवताओंका जो यायावर नामसे प्रसिद्ध गण हैं, वे सभी विषयोंसे पूजन करे, नियमपूर्वक रहे, नियमित भोजन करे, उपरत हो मायाके बन्धनको तोड़कर वनमें चले गये थे। भगवान् श्रीविष्णुमें भक्ति रखे तथा यज्ञके सम्पूर्ण मुमुक्षुको उचित है कि वह सर्वस्व दक्षिणा देकरअङ्गोंका पालन करते हुए प्रतिदिन अग्निहोत्रका अनुष्ठान सबका त्याग करके सद्यस्करी (तत्काल आत्मकल्याण करे। धान और जौ वही ग्रहण करे, जो बिना जोती हुई करनेवाला) बने। आत्माका ही यजन करे, विषयोंसे जमीनमें अपने-आप पैदा हुआ हो। इसके सिवा नीवार उपरत हो आत्मामें ही रमण करे तथा आत्मापर ही निर्भर (तीना) और विघस अन्नको भी वह पा सकता है। उसे करे। सब प्रकारके संग्रहका परित्याग करके भावनाके अग्निमें देवताओंके निमित्त हविष्य भी अर्पण करना द्वारा गार्हपत्यादि अग्नियोंकी आत्मामें स्थापना करे और चाहिये। वानप्रस्थी लोग वर्षाके समय खुले मैदानमें उसमें तदनुरूप यज्ञोंका सर्वदा अनुष्ठान करता रहे। आकाशके नीचे बैठते हैं, हेमन्त ऋतुमें जलका आश्रय चतुर्थ आश्रम सबसे श्रेष्ठ बताया गया है। वह लेते हैं और ग्रीष्ममें पञ्चाग्नि-सेवनरूप तपस्या करते हैं। तीनों आश्रमोंके ऊपर है। उसमें अनेक प्रकारके उत्तम उनमेंसे कोई तो धरतीपर लोटते हैं, कोई पंजोंके बल गुणोंका निवास है। वही सबकी चरम सीमा-परम खड़े रहते हैं और कोई-कोई एक स्थानपर एक आसनसे आधार है। ब्रह्मचर्य आदि तीन आश्रमोंमें क्रमशः रहनेके बैठे रह जाते हैं। कोई दाँतोंसे ही ऊखलका काम लेते पश्चात् काषाय-वस्त्र धारण करके संन्यास ले ले। है-दूसरे किसी साधनद्वारा फोड़ी हुई वस्तु नहीं ग्रहण सर्वस्व-त्यागरूप संन्यास सबसे उत्तम आश्रम है। करते। कोई पत्थरसे कूटकर खाते हैं, कोई जौके आटेको संन्यासीको चाहिये कि वह मोक्षकी सिद्धिके लिये पानी में उबालकर उसीको शुक्रपक्ष या कृष्णपक्षमें एक अकेले ही धर्मका अनुष्ठान करे, किसीको साथ न रखे। बार पी लेते हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो समयपर जो ज्ञानवान् पुरुष अकेला विचरता है, वह सबका त्याग अपने-आप प्राप्त हुई वस्तुको ही भक्षण करते हैं। कोई कर देता है; उसे स्वयं कोई हानि नहीं उठानी पड़ती। मूल, कोई फल और कोई फूल खाकर ही नियमित संन्यासी अग्निहोत्रके लिये अग्निका चयन न करे, अपने जीवन व्यतीत करते हैं। इस प्रकार वे न्यायपूर्वक रहनेके लिये कोई घर न बनाये, केवल भिक्षा लेनेके वैखानसों (वानप्रस्थियों) के नियमोंका दृढ़तापूर्वक लिये ही गाँवमें प्रवेश करे, कलके लिये किसी वस्तुका पालन करते हैं। वे मनीषी पुरुष ऊपर बताये हुए तथा संग्रह न करे, मौन होकर शुद्धभावसे रहे तथा थोड़ा और अन्यान्य नाना प्रकारके नियमोंकी दीक्षा लेते हैं। नियमित भोजन करे । प्रतिदिन एक ही बार भोजन करे।
चौथा आश्रम संन्यास है। यह उपनिषदोंद्वारा भोजन करने और पानी पीनेके लिये कपाल (काठ या प्रतिपादित धर्म है। गृहस्थ और वानप्रस्थ आश्रम प्रायः नारियल आदिका पात्रविशेष) रखना, वृक्षकी जड़में साधारण-मिलते-जुलते माने गये हैं; किन्तु संन्यास निवास करना, मलिन वस्त्र धारण करना, अकेले रहना इनसे भिन्न-विलक्षण होता है। तात ! प्राचीन युगमें तथा सब प्राणियोंकी ओरसे उदासीनता रखना-ये सर्वार्थदर्शी ब्राह्मणोंने संन्यास-धर्मका आश्रय लिया था। भिक्षु (संन्यासी) के लक्षण है! जिस पुरुषके भीतर