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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
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देवी-ये सब सम्पूर्ण जगत्का हित करनेके लिये कहे-'भगवन् ! मुझे पढ़ाइये। प्रभो! यह कार्य मैंने ब्रह्माजीके निवास स्थान पुष्कर क्षेत्रमें सदा विद्यमान पूरा कर लिया है और इस कार्यको मैं अभी करूंगा।' रहते हैं। इस तीर्थमें निवास करनेवाले लोग सत्ययुगमें इस प्रकार पहले कार्य करे और फिर किया हुआ सारा बारह वर्षातक, त्रेतामें एक वर्षतक तथा द्वापरमें एक काम गुरुको बता दे। मैंने ब्रह्मचारीके नियमोंका यहाँ मासतक तीर्थ सेवन करनेसे जिस फलको पाते थे, उसे विस्तारके साथ वर्णन किया है; गुरुभक्त शिष्यको इन कलियुगमें एक दिन-रातके तीर्थ-सेवनसे ही प्राप्त कर सभी नियमोंका पालन करना चाहिये। इस प्रकार अपनी लेते हैं।* यह बात देवाधिदेव ब्रह्माजीने पूर्वकालमें शक्तिके अनुसार गुरुकी प्रसन्नताका सम्पादन करते हुए मुझसे (पुलस्त्यजीसे) स्वयं ही कही थी। पुष्करसे शिष्यको कर्तव्यकर्ममें लगे रहना उचित है। वह एक, बढ़कर इस पृथ्वीपर दूसरा कोई क्षेत्र नहीं है; इसलिये दो, तीन या चारों वेदोंको अर्थसहित गुरुमुखसे अध्ययन पूरा प्रयत्न करके मनुष्यको इस पुष्कर वनका सेवन करे। भिक्षाके अन्नसे जीविका चलाये और धरतीपर करना चाहिये। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और शयन करे। वेदोक्त व्रतोंका पालन करता रहे और संन्यासी-ये सब लोग अपने-अपने शास्त्रोक्त धर्मका गुरु-दक्षिणा देकर विधिपूर्वक अपना समावर्तन-संस्कार पालन करते हुए इस क्षेत्रमें परम गतिको प्राप्त करते हैं। करे। फिर धर्मपूर्वक प्राप्त हुई स्त्रीके साथ गार्हपत्यादि
धर्म और अर्थके तत्त्वको जाननेवाले पुरुषको अनियोंकी स्थापना करके प्रतिदिन हवनादिके द्वारा चाहिये कि वह अपनी आयुके एक चौथाई भागतक उनका पूजन करे। दूसरेकी निन्दासे बचकर ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए आयुका [प्रथम भाग ब्रह्मचर्याश्रममें बितानेके गुरु अथवा गुरुपुत्रके समीप निवास करे तथा गुरुकी पश्चात्] दूसरा भाग गृहस्थ आश्रममें रहकर व्यतीत सेवासे जो समय बचे, उसमें अध्ययन करे, श्रद्धा और करे। गृहस्थ ब्राह्मण यज्ञ करना, यज्ञ कराना, वेद पढ़ना, आदरपूर्वक गुरुका आश्रय ले। गुरुके घरमें रहते समय वेद पढ़ाना तथा दान देना और दान लेना-इन छ: गुरुके सोनेके पश्चात् शयन करे और उनके उठनेसे पहले कोका अनुष्ठान करे। उससे भिन्न वानप्रस्थी विन उठ जाय। शिष्यके करनेयोग्य जो कुछ सेवा आदि कार्य केवल यजन, अध्ययन और दान-इन तीन कर्मोका ही हो, वह सब पूरा करके ही शिष्यको गुरुके पास खड़ा अनुष्ठान करे तथा चतुर्थ आश्रममें रहनेवाला ब्रह्मनिष्ठ होना चाहिये। वह सदा गुरुका किङ्कर होकर सब संन्यासी जपयज्ञ और अध्ययन-इन दो ही कर्मोंसे प्रकारकी सेवाएँ करे। सब कार्यों में कुशल हो। पवित्र, सम्बन्ध रखे। गृहस्थके व्रतसे बढ़कर दूसरा कोई महान कार्यदक्ष और गुणवान् बने। गुरुको प्रिय लगनेवाला तीर्थ नहीं बताया गया है। गृहस्थ पुरुष कभी केवल उत्तर दे। इन्द्रियोंको जीतकर शान्तभावसे गुरुकी ओर अपने खानेके लिये भोजन न बनाये [देवता और देखे। गुरुके भोजन करनेसे पहले भोजन और जलपान अतिथियोंके उद्देश्यसे ही रसोई करे] । पशुओंकी हिंसा करनेसे पहले जलपान न करे। गुरु खड़े हों तो स्वयं भी न करे। दिनमें कभी नींद न ले। रातके पहले और बैठे नहीं। उनके सोये बिना शयन भी न करे। उत्तान पिछले भागमें भी न सोये। दिन और रात्रिकी सन्धिमें हाथोंके द्वारा गुरुके चरणोंका स्पर्श करे। गुरुके दाहिने (सूर्योदय एवं सूर्यास्तके समय) भोजन न करे। झूठ न पैरको अपने दाहिने हाथसे और बायें पैरको बायें हाथसे बोले। गृहस्थके घरमें कभी ऐसा नहीं होना चाहिये कि धीरे-धीरे दबाये और इस प्रकार प्रणाम करके गुरुसे कोई ब्राह्मण अतिथि आकर भूखा रह जाय और उसका
'कृते तु द्वादशैवषैत्रेतायां हायनेन तु।मासेन द्वापरे भीष्म अहोरात्रेण तत्कलौ॥
(१५। २८०-८१)
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