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___प्राकृत व्याकरण * 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 उल्लिखित 'जम' और 'शम्' के उल्लेख का तात्पर्य समझ लेना चाहिये ।
प्रश्न:-सुत्र को वृत्ति के प्रारम्भ में 'इकारान्त' और 'उकारान्त' कहने का क्या तात्पर्य है।
उत्तरः-प्राकृत में अकारान्त आदि शब्द भी होते हैं, परन्तु (इकारान्त और उकारान्त शब्दों) के अतिरिक्त) ऐसे शब्दों में 'जस्' और 'शस्' के स्थान पर णो' आदेश प्राप्त प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होती है; ऐसा विशेष तात्पर्य प्रदर्शित करने के लिये ही वृत्ति के प्रारम्भ में 'इकारान्त' और 'अकारान्त' जैसे शब्द-विशेषों को लिखना पड़ा है । जैसेः-वृक्षाः-बच्छा और वृक्षाम् अच्छे । यह उदाहरण अकारान्तास्मक है, तथा इममें कम से 'जस' और 'शस' की प्राप्ति हुई है; परन्तु प्राप्त प्रत्यय 'जम' और 'शस्' के स्थान पर 'णो' आदेश-प्रान प्रत्यय का अभाव है; तदनुसार यह ध्यान में रखना चाहिये कि प्राकृत में अकारान्त श्रादि शब्दों के अतिरिक्त केवल इकारान्त और उकारान्त पुल्लिग शब्दों में हो 'जस' तथा 'शस' के स्थान पर 'णो' श्रादेश-प्राप्त प्रत्यय की प्राप्ति हुआ करती है; अन्य किसी भी विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय के स्थान पर 'णो' श्रादेश-प्राप्त प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होता है।
मूल-सूत्र में 'जस-शसोः' ऐसा जो द्वित्व रूपात्मक उल्लेख है; इसको यथा क्रम से 'इकारान्त' और 'सकारान्त' शब्दों में संयोजित किया जाना चाहिये; दोनों का दोनों में क्रम स्थापित कर देना चाहिये । ऐसा 'यथा-संख्यात्मक' भाव प्रदर्शित करने के लिये ही 'द्वित्व' रूप से 'जस-शसोः' का उल्लेख किया गया है। यही परिपाटी आगे आने वाले सूत्र- संख्या ३-२३ के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये, जैसा कि ग्रंथकार ने वृत्ति में 'उत्तर-सूत्रेपि' पद का निर्माण करके अपने मन्तव्य को प्रदर्शित किया है।
गिरयः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप गिरिणो और गिरी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूध-संख्या ३-२२ से से प्रथमा-विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस' के स्थान पर प्राकृत में णा' आदेश-प्राप्ति होकर गिरिषों रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सुत्र-संख्या ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतोय प्रत्यय 'जस्' का लाप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जम् प्रत्यय के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दोध स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप गिरि भी सिद्ध हो जाता है।
तरमः संस्कृन प्रश्रमान्त बहुवचन का रूप है । इस के प्राकृत रूप तरुणो और तरू होते है । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ३.२२ से माकृतीय प्रथमा विभति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' अादेश-पाति होकर प्रथम रूप तरुणी सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या ३-४ से संस्कृतोय प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्' का प्राकृत में लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप प्रत्यय 'जात' के कारण से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप तरू भी सिद्ध हो जाता है।
राजन्ते संस्कृत अकर्मक क्रिया पद का बहुवचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप रेहन्ति होतो