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* प्राकृत व्याकरण * Gopatrotrososo000000000000000000morrorontroot000000000000000000000000000 'डो' और 'डज' में 'ड' इत्सबक होने से 'साहु' में स्थित अन्य स्वर 'उ' की इसंज्ञा होकर 'उ' का लोप एवं प्राप्त रूप 'साह.' म 'अयो' तथा 'अ' प्रत्यय की संयोजना होकर द्वितीय और तृतीय रूप साहो तथा साहस भी क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से सिद्ध हो जाते हैं।
चतुर्थ रूप 'साहू' में सूत्र-मंख्या ३-४ से संस्कृतीय प्रथमान्त बहुवचन के प्रत्यय जम' की प्राप्ति होकर लोप तथा ३-१२ से प्राप्त एवलुप्त 'जस' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ज' की प्राप्ति होकर चतुर्थ प्रथमान्त बहुवचन रूप साहू भो सिद्ध हो जाता है।
पंचम रूप 'साहुणो' में सूत्र-संख्या ३-१२ से संस्कृतीय प्रथमान्त बहुवचन के प्रत्यय 'जम' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'गो' श्रादेश-प्राप्ति होकर पंचम रूप साहुणो भी सिद्ध हो जाता है।
"अच्छा" (प्रथमान्त बहु वचन) रूप की सिद्ध सूत्र-संख्या -४ में की गई है।
धेमवः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन रूप है । इमका प्राकृत रूप घेणू होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से मूल रूप 'धेनु' में स्थित 'न्' का 'ण'; ३-४ से प्रथमा विभक्त के बष्टु वचन में प्राप्त संस्कृतीय प्रत्यथ 'जस' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हस्त्र स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथमान्त बहुवचन रूप घेणू सिद्ध हो जाता है।
महूई रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या-70 में की गई है।
साधून संस्कृत द्वितीयान्त रूप है । इसके प्राकृत रूप साहू और साहुणो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १.१८७ से मूल रूप 'साधु' में स्थित 'ध्' के स्थान पर 'ह' को प्राप्ति; तपश्चात प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त संस्कृतीय प्रत्यय 'शस्' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'शस' प्रत्यय के कारण से अन्स्य ह्रस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर द्वितीयान्त बहुवचन रूप 'साहू' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'साहुणो' में सूत्र-संख्या ३.२२ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त संस्कृतीय प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर प्राकृत में पुल्लिंग द कल्पिक रूप से 'गो' प्रत्यय को आदेश प्राप्ति होकर द्वितीय रूप साहुणो मिद्ध हो जाता है।
पेच्छ (क्रिया पद के ) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है ॥ ३-२१ ॥
जस्-शसोर्णो वा ॥ ३-२२ ॥ इदृतः परयो जस्-शसोः पुसि को इत्यादेशो भवति ।। गिरिणो तरुणो रेहन्ति पेच्छ वा । पक्षे | गिरी । तरू । पुसीत्येव । दहीई । महूई ।। जस्-शसो रिति किम् । गिरिं । तरु॥