________________
* प्राकृत व्याकरण *
पतिः संस्कृत रूप हैं। इसका प्राकृत रूप प होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त' का लोर और . ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में हस्ष इकारान्त पुल्लिम में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य 'इ' को वीर्घ है की प्राप्ति होकर पई रूप सिद्ध हो जाता है।
वृक्षान् संस्कृत पञ्चम्यन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप बच्छाओ होता है । इसमें सूत्र संख्या १.१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'भ' को प्राप्ति २-३ सेल' के स्थान पर 'छ' को प्राप्ति; २-८९ में पाप्त '' को विस्व 'छ् छ' को प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व ' के स्थान पर 'च' को प्राप्ति, ३-८ र पंको प्रत्यय 'इसि' के स्थानीय रूप त' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय को पारित और ३-१२ मे पास प्रत्यय 'ओ' के पूर्व में बच्छ के अन्त्य 'अ'को बोध स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर पाओ रूप सिद्ध होता है।
मुग्धया संस्कूल तृतीयान्त रूप है । इसके प्राकृत रूप मुद्धाए और मुद्धाइ होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७७ से 'म'का लोप: २०८९ से दोष 'ब' को विस्व ' घ की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व '५' के स्थान पर 'द्' की प्राप्ति, ३.२९ से संतान तृतीय-विभक्ति के एक कान के प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'या' के स्थान पर प्राकृत में कम 'क' और ' प्ररमा को प्राप्ति और ३-२९ हो पात प्रत्यय 'ए' और 'इ' के पूर्व में अक्षय स्वर मा कोई सार 'आ' की प्राप्ति होकर कम से दोनों प सुधाए एवं मुद्धाह सिद्ध हो जाते हैं।
कांक्षति संस्कृत क्रियापद का रूप है । इसके प्राकृत रूप महा और महए होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-१९-२ से 'काम' धातु के स्थान पर 'मह' का आवेश; ४-२३९ से प्राप्त 'मह' में हलन्स 'ह,' को 'अ' को प्राप्ति; ३-१३९ में वर्तमान काल के एक वचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'इ' और 'ए' को प्राप्ति होकर दोनों रूप. कसं महद और महए सिद्ध हो जाते हैं ।
करिष्यति:-क्रिया पर का संस्कृत काह। इसके प्राकृत कम काहि और कालो होते हैं। इनमें सूत्रसंख्या ४-२१४ से मस धातु 'क' के स्थान पर 'का' का आवेश, ३-१६६ से संस्कृत भविषवत्-कालीन संस्कृत
के स्थान पर ' की प्राप्तिः ए३-१३१ व काल के प्रथम के एकवचन में 'इ' को प्राप्ति और १-५ से 'हि' में स्थित 'ई' के साथ आगे रही हई' की संधि कल्पिक रूप से होकर दोनों रूप क्रम से काहिह और काही सिद्ध हो जाते हैं।
दितीत विशेषण रूप है। इसमें प्राकृत रूप बिइभी और बीओ होते हैं। उनमें सत्र-संख्या २-७७ से 'व' का लोपः १-१00 से 'त' कर और कालोप -४ से दिलच बोध के स्थान पर हस्क 'इ' की प्राप्तिः १-५ से प्रथम के साथ वितीय ' को बैकल्पिक रूप से संधि होकर पीर्घ ६ की प्राप्ति
और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बयान में अकारान्त पुलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूपापिओ और बीजी सित हो जाते हैं।१-५॥
न युवर्णस्यास्वे ॥ १--६ ॥ इवर्णस्य उवर्णस्य च असे वर्षे परे संधि न भवति ! न वेरि-बम्गे वि अश्यासो ! बन्दामि अज्ज-बहर !!