________________
५०
पर्याप्तकासंज्ञिपंचेन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकसंज्ञिपंचेन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकभेदाच्चतुदर्शभेदा भवन्ति । भवनव्यंतरज्योतिः कल्पवासिकभेदाद्देवाश्चतुर्णिकाया: । एतेषां चतुर्गतिजीवभेदानां भेदो लोकविभागाभिधानपरमागमे दृष्टव्यः । इहात्मस्वरूपप्ररूपणान्तरायहेतुरिति पूर्वसूरिभिः सूत्रकृद्भिरनुक्त इति ।
( मंदाक्रांता )
स्वर्गे वास्मिन्मनुजभुवने खेचरेन्द्रस्य दैवाज्जोतिर्लोके फणपतिपुरे नारकाणां निवासे । अन्यस्मिन् वा जिनपतिभवने कर्मणां नोऽस्तु सूति: भूयो भूयो भवतु भवतः पादपंकेजभक्तिः ।। २८ ।।
नियमसार
(५-६) द्वीन्द्रिय पर्याप्तक और अपर्याप्तक । ( ७ - ८ ) त्रीन्द्रिय पर्याप्तक और अपर्याप्तक । (९-१०) चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक और अपर्याप्तक ।
(१९१ - १२) असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक और अपर्याप्तक । (१३-१४) संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक और अपर्याप्तक ।
भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और कल्पवासी ह्न इसप्रकार देवों के चार निकाय हैं अर्थात् देव चार प्रकार के होते हैं। इन चार गति के जीवों के भेदों के भेद लोकविभाग नामक परमागम में देख लेना चाहिए; क्योंकि इस परमागम में आत्मस्वरूप के निरूपण में अन्तराय का हेतु जानकर गाथा सूत्रों को रचनेवाले पूर्वाचार्य कुन्दकुन्ददेव ने नहीं कहे हैं। "
यह नियमसार परमागम अध्यात्म का सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थराज है । आचार्यदेव को इसमें इन चार गतियों की चर्चा विस्तार से करना उचित प्रतीत नहीं हुआ । अतः उन्होंने इनके नाम मात्र गिनाकर मूल गाथा में ही लिख दिया कि 'लोयविभागेसु णादव्वं' ह्न इनका स्वरूप लोक के विभाग का विस्तार से निरूपण करनेवाले शास्त्रों से जान लेना चाहिए ।
गाथा में तो मात्र भेद ही गिनाये थे, पर टीका में थोड़े से प्रभेद बताकर मूल ग्रन्थकार के भप्रायको ध्यान में रखकर अधिक विस्तार नहीं किया ।॥ १६-१७ ॥
टीका के अन्त में टीकाकार मुनिराज दो छन्द लिखते हैं; जिनमें से प्रथम छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
वीर ) दैवयोग से मानुष भव में विद्याधर के भवनों में । स्वर्गों में नरकों में अथवा नागपती के नगरों में ।। जिनमंदिर या अन्य जगह या ज्योतिषियों के भवनों में ।
कहीं रहूँ पर भक्ति आपकी रहे निरंतर नजरों में ॥ २८ ॥