Book Title: Niyamsara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 439
________________ शुद्धोपयोग अधिकार ४३९ (वसंततिलका) यो नैव पश्यति जगत्त्रयमेकदैव कालत्रयं च तरसा सकलज्ञमानी। प्रत्यक्षदृष्टिरतुला न हि तस्य नित्यं सर्वज्ञता कथमिहास्य जडात्मन: स्यात् ।।२८४।। लोयालोयं जाणइ अप्पाणं णेव केवली भगवं। जइ कोइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ ।।१६९।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( हरिगीत) 'मैं स्वयं सर्वज्ञ हूँ ह इस मान्यता से ग्रस्त जो। पर नहीं देखे जगतत्रय त्रिकाल को इक समय में ।। प्रत्यक्षदर्शन है नहीं ज्ञानाभिमानी जीव को। उस जड़ात्मन को जगत में सर्वज्ञता हो किसतरह? ||२८४|| सर्वज्ञता के अभिमानवाला जो जीव एक ही समय तीन लोक और तीन काल को नहीं देखता; उसे कभी भी अतुल प्रत्यक्ष दर्शन नहीं होता; उस जड़ आत्मा को सर्वज्ञता किसप्रकार होगी? तात्पर्य यह है कि वह सर्वज्ञ नहीं हो सकता। ___ इस छन्द में यही कहा गया है कि जो व्यक्ति स्वयं को सर्वज्ञ मानता है ह ऐसा सर्वज्ञाभिमानी जीव जब एक ही समय तीन लोक और तीन काल को नहीं देखता, नहीं जानता; तो वह सर्वज्ञ कैसे हो सकता है? तात्पर्य यह है कि वह सर्वज्ञ नहीं हो सकता; क्योंकि सर्वज्ञ कहते ही उसे हैं; जो लोक के सभी द्रव्यों, उनके सभी गुणों और उनकी सभी पर्यायों को बिना किसी के सहयोग देखे-जाने ||२८४|| विगत गाथा में यह कहा गया था कि केवलदर्शन के बिना केवलज्ञान संभव नहीं है और अब इस गाथा में व्यवहारनय संबंधी कथन को निर्दोष बता रहे हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है तू (हरिगीत) सब विश्व देखें केवली निज आत्मा देखें नहीं। यदि कहे कोई इसतरह उसमें कहो है दोष क्या ?||१६९||

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