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पुव्वुत्तसयलदव्वं णाणागुणपज्जएण संजुत्तं । जोय पेच्छइ सम्मं परोक्खदिट्ठी हवे तस्स ।। १६८ ।। पूर्वोक्तसकलद्रव्यं नानागुणपर्यायेण संयुक्तम् ।
यो न पश्यति सम्यक् परोक्षदृष्टिर्भवेत्तस्य ।। १६८ ।।
अत्र केवलदृष्टेरभावात् सकलज्ञत्वं न समस्तीत्युक्तम् । पूर्वसूत्रोपात्तमूर्तादिद्रव्यं समस्तगुणपर्यायात्मकं, मूर्तस्य मूर्तगुणा:, अचेतनस्याचेतनगुणाः, अमूर्तस्यामूर्तगुणा:, चेतनस्य चेतनगुणाः, षड्ढानिवृद्धिरूपाः सूक्ष्मा: परमागमप्रामाण्यादभ्युपगम्याः अर्थपर्यायाः षण्णां द्रव्याणां साधारणाः, नरनारकादिव्यंजनपर्याया जीवानां पंचसंसारप्रपंचानां, पुद्गलानां स्थूलस्थूलादिस्कन्धपर्यायाः, चर्तुणां धर्मादीनां शुद्धपर्यायाश्चेति, एभिः संयुक्तं तद्द्रव्यजालं यः खलु न पश्यति, तस्य संसारिणामिव परोक्षदृष्टिरिति ।
गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
नियमसार
( हरिगीत )
विविध गुण पर्याय युत वस्तु न जाने जीव जो ।
परोक्षदृष्टि जीव वे जिनवर कहें इस लोक में || १६८||
अनेक प्रकार के गुणों और पर्यायों से सहित पूर्वोक्त समस्त द्रव्यों को जो भलीभाँति नहीं देखता; उसे परोक्ष दर्शन कहते हैं।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न “यहाँ ऐसा कहा है कि केवलदर्शन (प्रत्यक्षदर्शन) के अभाव में सर्वज्ञपना संभव नहीं । पूर्वसूत्र अर्थात् १६७वीं गाथा में कहे गये समस्त गुणों और पर्यायों सहित मूर्तादि द्रव्यों को जो नहीं देखता; अर्थात् मूर्त द्रव्य के मूर्त गुण, अचेतन द्रव्य, अचेतन गुण, अमूर्त द्रव्य
अमूर्त गुण, चेतन द्रव्य के चेतन गुण; छह प्रकार की हानि - वृद्धिरूप सूक्ष्म, परमागम के अनुसार स्वीकार करने योग्य अर्थ पर्यायें जो कि सभी छह द्रव्यों में सामान्यरूप से रहती हैं, पाँच प्रकार की संसारी जीवों की नर-नारकादि व्यंजनपर्यायें; पुद्गलों की स्थूल-स्थूल आदि स्कंध पर्यायें और धर्मादि चार द्रव्यों की शुद्धपर्यायें ह्न इन गुण और पर्यायों से सहित द्रव्यसमूह को जो नहीं देखता; वह भले ही सर्वज्ञता के अभिमान से दग्ध हो; तथापि उसे संसारियों के समान परोक्ष दृष्टि ही है।"
इस गाथा और उसकी टीका में यही कहा गया है कि केवलदर्शन के बिना केवलज्ञान नहीं होता । केवलदर्शन और केवलज्ञान ही क्रमशः प्रत्यक्षदर्शन और प्रत्यक्षज्ञान हैं। चक्षुदर्शन आदि अन्यदर्शन और मतिज्ञान आदि अन्य ज्ञान परोक्ष दर्शन-ज्ञान हैं ।। १६८ ।।