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उद्घृत गाथा व श्लोकों की वर्णानुक्रम सूची
बन्धच्छेदात्कलयदतुलं बहिरात्मान्तरात्मेति
भावयामि भवावर्ते भेदविज्ञानतः सिद्धाः भेयं मायामहागर्ता
मज्झं परिग्गहो जदि
मुक्त्वालसत्वमोहविलासविजृम्भित
यथावद्वस्तुनिर्णीतिः यत्र प्रतिक्रमणमेव यदग्राह्यं न गृह्णाति यदि चलति कथञ्चि
यमनियमनितान्तः
लोयायासपदेसे
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७४
६९
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४३
३७
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२८
५७
५८
७३
४५
४९
६८
३२
१६
४१५ वनचरभयाद्धावन्
३८७
२१३
१९३
२९८
वसुधान्त्यचतु: स्पर्शेषु
व्यवहरणनयः स्या
१४६
२५३
२५५
सकलमपि विहायासमओ णिमिसो कट्ठा
समओ
दु अप्पदेसो समधिगतसमस्ताः सव्वे भावे जह्मा संसिद्धिराधसिद्धं
४१४ सिद्धान्तोऽयमुदात्त
सो धम्मो जत्थ दया
२१८
२३१ स्थितिजनननिरोधलक्षणं
३८३ स्थूलस्थूलास्तत:
१५६
स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वरनिकरविसर्ग८६ स्वेच्छासमुच्छलद
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व
स
६३
१३
२४
१९
१४
१५
२९
४६
३९
२५
१
८१
८
५४
२१
७१
४९१
२९८
७४
१३०
१०९
८४
८६
१५२
२२६
१९८
१३२
२२
४४१
६६
२४४
११४
३८९
वस्तु तो पर से निरपेक्ष ही है। उसे अपने गुण-धर्मों को धारण करने में किसी पर की अपेक्षा रंचमात्र भी नहीं है। उसमें नित्यता- अनित्यता, एकता - अनेकता आदि सब धर्म एक साथ विद्यमान रहते हैं । द्रव्यदृष्टि से वस्तु जिस समय नित्य है, पर्याय दृष्टि से उसी समय अनित्य भी है, वाणी से जब नित्यता का कथन किया जायेगा, तब अनित्यता का कथन सम्भव नहीं है।
अत: जब हम वस्तु की नित्यता का प्रतिपादन करेंगे, तब श्रोता यह समझ सकता है कि वस्तु नित्य ही है, अनित्य नहीं । अतः हम 'किसी अपेक्षा नित्य भी हैं, 'ऐसा कहते हैं। ऐसा कहने से उसके ज्ञान में यह बात सहज आ जावेगी कि किसी अपेक्षा अनित्य भी है। भले ही वाणी के असामर्थ्य के कारण वह बात कही नहीं जा रही है।
अतः वाणी में स्याद् - पद का प्रयोग आवश्यक है, स्याद् - पद अविवक्षित धर्मों को गौण करता है, पर अभाव नहीं। उसके प्रयोग बिना अभाव का भ्रम उत्पन्न हो सकता है। तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ- १४४