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प्रकाशकीय समयसार की डॉ. भारिल्ल कृत ज्ञायकभावप्रबोधिनी हिन्दी टीका एवं प्रवचनसार की ज्ञानज्ञेयप्रबोधिनी हिन्दी टीका के प्रकाशनोपरान्त अब यह नियमसार की आत्मप्रबोधिनी हिन्दी टीका प्रस्तुत करते हुए हमें हार्दिक प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है।
डॉ. भारिल्ल जितने कुशल प्रवक्ता हैं, लेखन के क्षेत्र में भी उनका कोई सानी नहीं है। यही कारण है कि आज उनके साहित्य की देश की प्रमुख आठ भाषाओं में लगभग ४५ लाख से अधिक प्रतियाँ प्रकाशित होकर जन-जन तक पहुँच चुकी हैं। आपने अबतक ७८ कृतियों के माध्यम से साढे तेरह हजार (१३,५००) पृष्ठ लिखे हैं और लगभग १५ हजार पृष्ठों का सम्पादन किया है, जो सभी प्रकाशित हैं। आपकी प्रकाशित कृतियों की सूची इसमें यथास्थान दी गई है।
प्रातःस्मरणीय आचार्य कुन्दकुन्द के पंच परमागम ह्न समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकाय और अष्टपाहुड़ आदि ग्रंथों पर आपका विशेषाधिकार है। आपके द्वारा लिखित और पाँच भागों में २२६१ पृष्ठों में प्रकाशित समयसार अनुशीलन के अतिरिक्त ४०० पृष्ठों का समयसार का सार व ६३८ पृष्ठों की समयसार की ज्ञायकभावप्रबोधिनी टीका जन-जन तक पहँच चुकी है।
इसीप्रकार १२५३ पृष्ठों का प्रवचनसार अनुशीलन तीन भागों में, ४०७ पृष्ठों का प्रवचनसार का सार एवं ५७२ पृष्ठों की प्रवचनसार की ज्ञानज्ञेयतत्त्वप्रबोधिनी टीका भी प्रकाशित होकर आत्मार्थी जगत में धूम मचा चुकी हैं।
नियमसार अनुशीलन तीनों भागों में ९१८ पृष्ठों में तथा ५०० पृष्ठों की नियमसार ग्रंथ की प्रस्तुत आत्मप्रबोधिनी टीका ह्र इसप्रकार कुन्दकुन्दाचार्य की अमरकृति समयसार, प्रवचनसार और नियमसार पर ही आप कुल मिलाकर ७१४९ पृष्ठ लिख चुके हैं।
डॉ. भारिल्ल ने आजतक जिन भी विषयों पर अपनी लेखनी चलाई है, उसे न केवल मुमुक्षु समाज अपितु सम्पूर्ण जैन समाज ने हाथों-हाथ लिया है। डॉ. भारिल्ल कृत समयसार की ज्ञायकभावप्रबोधिनी हिन्दी टीका और प्रवचनसार की ज्ञानज्ञेयप्रबोधिनी हिन्दी टीका का मुमुक्षु समाज में जो आदर हुआ, उससे प्रेरित होकर मैंने डॉ. भारिल्ल से कहा कि आपका नियमसार पर भी वैसा ही अधिकार है, जैसाकि समयसार एवं प्रवचनसार पर। अत: यदि आप समयसार एवं प्रवचनसार के समान ही नियमसार की भी हिन्दी भाषा में सरल और सुबोध एक टीका लिखें तो मुमुक्षु समाज का बहुत उपकार होगा। मुझे प्रसन्नता है कि डॉ. भारिल्ल ने मेरे द्वारा बार-बार अनुरोध किये जाने पर नियमसार ग्रंथाधिराज पर हिन्दी टीका लिखना स्वीकार कर लिया; परिणामस्वरूप आज यह आत्मप्रबोधिनी हिन्दी टीका आपके करकमलों में प्रस्तुत है।
इस टीका में कुछ ऐसी महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ हैं; जो इसे अन्य टीकाओं से पृथक् स्थापित करती हैं और उन टीकाओं के रहते हुए भी इसकी आवश्यकता और उपयोगिता को रेखांकित करती हैं।
आत्मप्रबोधिनी टीका की विशेषताएँ इसप्रकार हैं ह्न १. भाषा सरल, सहज, सुलभ, स्पष्ट भाववाही है।
२. मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव कृत तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीका का अनुवाद शब्दश: न देकर भावानुवाद दिया गया है, जिससे विषयवस्तु को समझने में पाठकों को विशेष लाभ होगा।