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( मंदाक्रांता )
बन्धच्छेदादतुलमहिमा देवविद्याधराणां प्रत्यक्षोऽद्य स्तवनविषयो नैव सिद्धः प्रसिद्धः । लोकस्याग्रे व्यवहरणतः संस्थितो देवदेवः स्वात्मन्युच्चैरविचलतया निश्चयेनैवमास्ते । । २९४।। (अनुष्टुभ् ) पंचसंसारनिर्मुक्तान् पंचसंसारमुक्तये ।
पंचसिद्धानहं वंदे पंचमोक्षफलप्रदान् । । २९५।।
नियमसार
षट् अपक्रमों से रहित संसारी जीवों के लक्षण से सिद्धों का लक्षण भिन्न होता है। इसलिए वे सदाशिव अर्थात् सदासुखी सिद्धजीव ऊर्ध्वगामी होते हैं ।
संसारी जीव अगले भव में जाते समय जो पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण और ऊपर-नीचे ह्न इन छह दिशाओं में गमन करते हैं; उसे छह अपक्रम कहते हैं। सिद्ध जीवों की गति ऊर्ध्व होने से छह अपक्रमों से रहित होती है। उक्त छह अपक्रमगति वाले संसारी जीवों से सिद्धों का लक्षण भिन्न है। यही कारण है कि वे ऊर्ध्वगामी और सदा शिवस्वरूप हैं ।। २९३ ।।
( वीर )
देव और विद्याधरगण से नहीं वंद्य प्रत्यक्ष जहान । बंध छेद से अतुलित महिमा धारक हैं जो सिद्ध महान ||
अरे लोक के अग्रभाग में स्थित हैं व्यवहार बरवान |
रहें सदा अविचल अपने में यह है निश्चय का व्याख्यान ।। २९४||
कर्मबंध का छेदन हो जाने से अतुल महिमा के धारक सिद्ध भगवान सिद्धदशा प्राप्त होने पर देव और विद्याधरों के द्वारा प्रत्यक्ष स्तुति गान के विषय नहीं रहे हैं ह्र ऐसा प्रसिद्ध है; तथापि वे व्यवहार से लोकाग्र में स्थित हैं और निश्चय से निज आत्मा में अविचलरूप से रहते हैं ।
अरहंत अवस्था में तो सौ इन्द्र उनके चरणों में नमते हैं, गणधरदेव आदि सभी मुनिराज भी उनकी आराधना करते हैं; किन्तु सिद्धदशा प्राप्त हो जाने पर यह सबकुछ नहीं होता; तथापि वे सिद्ध भगवान निज आत्मा में अविचलरूप से विराजमान रहकर अनन्तसुख का उपभोग करते हुए सिद्धशिला पर विराजमान रहते हैं ।। २९४ ।।
(दोहा)
पंचपरावर्तन रहित पंच भवों से पार ।
पंचसिद्ध बंदौ सदा पंचमोक्षदातार ||२९५||