Book Title: Niyamsara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 467
________________ शुद्धोपयोग अधिकार ४६७ स्कत्वान्न चिंता, औदयिकादिविभावभावानामभावादातरौद्रध्याने न स्तः, धर्मशुक्लध्यानयोग्य चरमशरीराभावात्तद्वितयमपि न भवति । तत्रैव च महानंद इति । (मंदाक्रांता) निर्वाणस्थे प्रहतदुरितध्वान्तसंघे विशुद्धे कर्माशेषं न च नच पुनानकं तच्चतुष्कम् । तस्मिन्सिद्धे भगवति परब्रह्मणि ज्ञानपुंजे काचिन्मुक्तिर्भवति वचसांमानसानांच दूरम् ।।३०१।। (शरीर) नहीं हैं; मन रहित होने के कारण चिन्ता नहीं है; औदयिकादि विभाव भावों का अभाव होने से आर्त और रौद्र ध्यान नहीं है तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यान के योग्य चरम शरीर न होने से ये दोनों उत्कृष्ट ध्यान भी नहीं है; वहाँ ही महानंद है।" उक्त गाथा और उसकी टीका में यही कहा गया है कि उक्त परमतत्त्व में; सदा निरंजन होने से ज्ञानावरणादि आठ कर्म नहीं हैं, त्रिकाल निरुपाधि स्वभाववाला होने से औदारिकरूप पाँच शरीररूप नोकर्म नहीं है, औदयिक आदि विभावभावों का अभाव होने से चार प्रकार के आर्त और चार के प्रकार के रौद्रध्यान नहीं हैं, चरम शरीर का अभाव होने से चरम शरीरी के होने वाले चार धर्मध्यान और चार शुक्लध्यान नहीं हैं तथा मन नहीं होने से चिन्ता भी नहीं है। ___ इसप्रकार महानन्दस्वरूप उक्त परमतत्त्व के न तो कर्म हैं, न नोकर्म हैं, न चिन्ता है, न आर्त-रौद्रध्यान है तथा धर्म और शुक्लध्यान भी नहीं है। इसप्रकार हम देखते हैं कि आश्रय करने योग्य वह परमतत्त्व ही है।।१८१।।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छन्द लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (रोला) जिसने घाता पापतिमिर उस शुद्धातम में। कर्म नहीं हैं और ध्यान भी चार नहीं हैं।। निर्वाण स्थित शुद्ध तत्त्व में मुक्ति है वह।। मन-वाणी से पार सदा शोभित होती है।।३०१|| जिसने पापरूपी अंधकार के समूह का नाश किया है, जो विशुद्ध है; उस निर्वाण में स्थित परम ब्रह्म में सम्पूर्ण कर्म नहीं है और चार प्रकार के ध्यान भी नहीं हैं। उन सिद्धरूप ज्ञानपुंज भगवान परम ब्रह्म में कोई ऐसी मुक्ति है, जो वचन और मन से दूर है।

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