Book Title: Niyamsara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 478
________________ ४७८ नियमसार प्रायश्चित्तपरमालोचनानियमव्युत्सर्गप्रभृतिसकलपरमार्थक्रियाकांडाडंबरसमृद्धस्य उपयोगत्रयविशालस्य परमेश्वरस्य शास्त्रस्य द्विविधं किल तात्पर्यं, सूत्रतात्पर्य शास्त्रतात्पर्यं चेति । सूत्रतात्पर्य पद्योपन्यासेन प्रतिसूत्रमेव प्रतिपादितम्, शास्त्रतात्पर्यं त्विदमुपदर्शयेत् । भागवतं शास्त्रमिदं निर्वाणसुन्दरीसमुद्भवपरमवीतरागात्मकनिाबाधनिरन्तरानंगपरमानन्दप्रदं निरतिशयनित्यशुद्धनिरंजननिजकारणपरमात्मभावनाकारणं समस्तनयनिचयांचितं पंचमगतिहेतुभूतं पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहेण निर्मितमिदं ये खलु निश्चयव्यवहारनययोरविरोधेन जानन्ति ते खलु महान्तः समस्ताध्यात्मशास्त्रहृदयवेदिन: परमानन्दवीतरागसुखाभिलाषिणः परित्यक्तबाह्याभ्यन्तरचतुर्विंशतिपरिग्रहप्रपंचाः त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपनिरतनिजकारणपरमात्मस्वरूपश्रद्धानपरिज्ञानाचरणात्मकभेदोपचारकल्पनानिरपेक्षस्वस्थरत्नत्रयपरायणाः सन्त: शब्दब्रह्मफलस्य शाश्वतसुखस्य भोक्तारो भवन्तीति । प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, प्रायश्चित्त, परमालोचना, नियम, व्युत्सर्ग आदि सभी परमार्थ क्रियाकाण्ड के आडम्बर से समृद्ध, तीन उपयोगों के कथन से सम्पन्न ह्न ऐसे इस परमेश्वरकथित नियमसार नामक शास्त्र के तात्पर्य को दो प्रकार से निरूपित किया जाता है ह्न सूत्रतात्पर्य और शास्त्रतात्पर्य। सूत्रतात्पर्य तो गाथारूप पद्य कथन के माध्यम से प्रत्येक गाथा सूत्र में यथास्थान प्रतिपादित किया गया है और अब शास्त्र तात्पर्य यहाँ टीका में प्रतिपादित किया जा रहा है; जो इसप्रकार है ह्न यह नियमसार शास्त्र भागवत शास्त्र है, भगवान द्वारा प्रतिपादित शास्त्र है। जो महापुरुष; निर्वाण सुन्दरी से उत्पन्न होनेवाले परम वीतरागात्मक, अव्याबाध, निरन्तर अतीन्द्रिय परमानन्द देनेवाले; निरतिशय, नित्य शुद्ध, निरंजन, निज कारणपरमात्म की भावना के कारण; समस्त नय समूह से शोभित, पंचमगति के हेतुभूत, पाँच इन्द्रियों के विस्तार से रहित, देहमात्र परिग्रहधारी निर्ग्रन्थ मुनिवर से रचित इस नियमसार नामक भागवत शास्त्र को निश्चयनय और व्यवहारनय के अविरोध से जानते हैं; वे महापुरुष समस्त अध्यात्मशास्त्रों के हृदय को जाननेवाले और परमानन्दरूप वीतराग सुख के अभिलाषी, बाह्याभ्यन्तर चौबीस परिग्रहों के प्रपंच के त्यागी, त्रिकाल, निरुपाधि स्वरूप में लीन निज कारणपरमात्मा के स्वरूप के श्रद्धान-ज्ञान-आचरणात्मक भेदोपचार कल्पना निरपेक्ष स्वस्थ रत्नत्रय में परायण होकर वर्तते हए शब्द ब्रह्म के फलरूप शाश्वत सुख के भोक्ता होते हैं।" इसप्रकार इस गाथा और उसकी टीका में कहा गया है कि यह शास्त्र मैंने अपनी भावना की पुष्टि के निमित्त से बनाया है। कहा जाता है कि आचार्य कुन्दकुन्ददेव स्वयं प्रतिदिन इस ग्रन्थ का पाठ करते थे। वे कहते हैं कि मैंने यह शास्त्र अपनी कल्पना से नहीं बनाया है;

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