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नियमसार
विज्जदि केवलणाणं केवलसोक्खं च केवलं विरियं ।
केवलदिट्ठि
अमुत्तं अत्थित्तं सप्पदेसत्तं । । १८२ ।। विद्यते केवलज्ञानं केवलसौख्यं च केवलं वीर्यम् । केवलदृष्टिरमूर्तत्वमस्तित्वं
सप्रदेशत्वम् ।। १८२।।
भगवतः सिद्धस्य स्वभावगुणस्वरूपाख्यानमेतत् । निरवशेषेणान्तर्मुखाकारस्वात्माश्रयनिश्चयपरमशुक्लध्यानबलेन ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्मविलये जाते ततो भगवतः सिद्धपरमेष्ठिनः केवलज्ञानकेवलदर्शनकेवलवीर्यकेवलसौख्यमूर्तत्वास्तित्वसप्रदेशत्वादिस्वभावगुणा भवन्ति इति ।
जो बात गाथा और उसकी टीका में कही गई है, वही बात इस छन्द में भी कही गई है। कहा गया है कि पापरूपी अंधकार का नाश करनेवाले, निर्वाणदशा को प्राप्त, विशुद्ध परमब्रह्म में ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म और मोह - राग-द्वेषरूप भावकर्म नहीं है; चार प्रकार के ध्यान भी नहीं हैं । उन सिद्धदशा प्राप्त, ज्ञान के पुंज परमब्रह्म में मन-वचन दूर कोई ऐसी मुक्ति प्रगट हुई है; जिसकी कामना सभी आत्मार्थी मुमुक्षु भाई-बहिन करते हैं । । ३०१ ।।
विगत गाथाओं में यह कहा था कि परमतत्त्व ही निर्वाण है और अब इस गाथा में उक्त निर्वाण अर्थात् सिद्ध भगवान के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र ( हरिगीत )
अरे केवलज्ञानदर्शन नंतवीरजसुख जहाँ ।
मूर्ति र बहुप्रदेशी अस्तिमय आतम वहाँ ॥ १८२ ॥
सिद्ध भगवान के केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख और केवल वीर्य तथा अमूर्तत्व, अस्तित्व और सप्रदेशत्व होते हैं।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न
“यह सिद्ध भगवान के स्वभावगुणों के स्वरूप का कथन है । सम्पूर्णत: अन्तर्मुखाकार स्वात्माश्रित निश्चयपरमशुक्लध्यान के बल से ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का विलय होने पर; उक्त कारण से सिद्ध भगवान के केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख और केवलवीर्य और अमूर्तत्व, अस्तित्व तथा सप्रदेशत्व आदि स्वभावगुण होते हैं।"
इस गाथा में सिद्ध भगवान के अनन्त चतुष्टय और अमूर्तत्व, अस्तित्व और सप्रदेशत्व की चर्चा है। टीका में यह भी स्पष्ट किया गया है कि इन गुणों की प्राप्ति निश्चय परम शुक्लध्यान के बल से होती है ।। १८२ ॥
इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छन्द लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है