Book Title: Niyamsara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 469
________________ शुद्धोपयोग अधिकार ( मंदाक्रांता ) बन्धच्छेदाद्भगवति पुनर्नित्यशुद्धे प्रसिद्धे तस्मिन्सिद्धे भवति नितरां केवलज्ञानमेतत् । दृष्टि: साक्षादखिलविषया सौख्यमात्यंतिकं च शक्त्याद्यन्यद्गुणमणिगणं शुद्धशुद्धश्च नित्यम् ।। ३०२।। णिव्वाणमेव सिद्धा सिद्धा णिव्वाणमिदि समुद्दिट्ठा । कम्मविमुक्को अप्पा गच्छइ लोयग्गपज्जंतं । । १८३ ।। निर्वाणमेव सिद्धा: सिद्धा: निर्वाणमिति समुद्दिष्टाः । कर्मविमुक्त आत्मा गच्छति लोकाग्रपर्यन्तम् । । १८३ ।। सिद्धिसिद्धयोरेकत्वप्रतिपादनपरायणमेतत् । रोला ) बंध - छेद से नित्य शुद्ध प्रसिद्ध सिद्ध में । ज्ञानवीर्यसुखदर्शन सब क्षायिक होते हैं । गुणमणियों के रत्नाकर नित शुद्ध शुद्ध हैं। सब विषयों के ज्ञायक दर्शक शुद्ध सिद्ध हैं । । ३०२|| ४६९ त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा और नित्य शुद्ध प्रसिद्ध सिद्धपरमेष्ठी में बंधछेद के कारण सदा के लिए केवलज्ञान होता है, सभी को देखनेवाला केवलदर्शन होता है, अनन्तसुख होता है और शुद्ध-शुद्ध अनन्तवीर्य आदिक अनन्त गुणमणियों समूह होता है। जो बात गाथा में कही गई है, उसी बात को इस छन्द में दुहरा दिया गया है ।। ३०२ ।। विगत गाथा में सिद्ध भगवान का स्वरूप समझाया था और अब इस गाथा में यह कह रहे हैं कि निर्वाण ही सिद्धत्व है और सिद्धत्व ही निर्वाण है । गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र ( हरिगीत ) निर्वाण ही सिद्धत्व है सिद्धत्व ही निर्वाण है। लोकाग्र तक जाता कहा है कर्मविरहित आतमा ।।१८३ ।। निर्वाण ही सिद्ध है और सिद्ध ही निर्वाण है ह्न ऐसा शास्त्रों में कहा गया है। कर्म से मुक्त आत्मा लोकाग्र पर्यन्त अर्थात् सिद्धशिला तक जाता है । इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "यह सिद्धि और सिद्ध के एकत्व के प्रतिपादन की प्रवीणता है ।

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