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नियमसार
निर्वाणशब्दोऽत्र द्विष्ठो भवति । कथमिति चेत्, निर्वाणमेव सिद्धा इति वचनात् । सिद्धाः सिद्धक्षेत्रे तिष्ठतीति व्यवहारः, निश्चयतो भगवंतः स्वस्वरूपे तिष्ठति । ततो हेतोर्निर्वाणमेव सिद्धाः सिद्धा निर्वाणम् इत्यनेन क्रमेण निर्वाणशब्दसिद्धशब्दयोरेकत्वं सफलं जातम् ।
अपि च यः कश्चिदासन्नभव्यजीवः परमगुरुप्रसादासादितपरमभावभावनया सकल कर्मकलंकपंकविमुक्त: स परमात्मा भूत्वा लोकाग्रपर्यन्तं गच्छतीति । ( मालिनी ) अथ जिनमतमुक्तेर्मुक्तजीवस्य भेदं
क्वचिदपि न च विद्मो युक्तितश्चागमाच्च ।
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यदि पुनरिह भव्य: कर्म निर्मूल्य सर्वं
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।। ३०३ ॥
यहाँ निर्वाण शब्द का प्रयोग दो अर्थों में हुआ है। यदि कोई कहे कि किसप्रकार तो उसके उत्तर में कहते हैं कि 'निर्वाणमेव सिद्धा ह्न निर्वाण ही सिद्ध हैं' ह्न इस आगम के वचन से यह बात सिद्ध होती है । 'सिद्ध भगवान सिद्धक्षेत्र में रहते हैं' ह्र ऐसा व्यवहार है । निश्चय से तो सिद्ध भगवान निज स्वरूप में ही रहते हैं; इसकारण 'निर्वाण ही सिद्ध है और सिद्ध ही निर्वाण है' ह्र इसप्रकार निर्वाण शब्द और सिद्ध शब्द में एकत्व सिद्ध हुआ ।
दूसरी बात यह है कि कोई आसन्न भव्य जीव परमगुरु के प्रसाद से प्राप्त परमभाव की भावना द्वारा सम्पूर्ण कर्मकलंकरूपी कीचड़ से मुक्त होते हैं; वे आसन्नभव्यजीव परमात्मतत्त्व प्राप्त कर लोक के अग्र भाग तक जाते हैं, सिद्धशिला तक पहुँचकर अनन्त काल तक के लिए वहीं ठहर जाते हैं ।'
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इस गाथा में निर्वाण ही सिद्धत्व है और सिद्धत्व ही निर्वाण है ह्न यह निर्वाण और सिद्धत्व में एकत्व स्थापित किया गया है। गाथा की दूसरी पंक्ति में यह कहा गया है कि आत्मा की आराधना करनेवाले पुरुष अष्टकर्मों का अभाव करके लोकाग्र में जाकर ठहर जाते हैं, अन्त काल तक के लिए वहीं विराजमान हो जाते हैं ।। १८३ ।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द लिखते हैं; जो इसप्रकार हैह्र (रोला ) जिनमत संमत मुक्ति एवं मुक्तजीव में।
हम युक्ति आगम से कोई भेद न जाने ||
यदि कोई भवि सब कर्मों का क्षय करता है ।
तो वह परमकामिनी का वल्लभ होता है || ३०३ || जैनदर्शन में मुक्ति और मुक्त जीव में युक्ति और आगम से हम कहीं भी कोई भेद नहीं