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शुद्धोपयोग अधिकार
ह्यभक्तिं जिनेश्वरप्रणीतशुद्धरत्नत्रयमार्गे हे भव्य मा कुरुष्व, पुनर्भक्तिः कर्तव्येति । ( शार्दूलविक्रीडित )
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देहव्यूहमहीजराजिभयदे दुःखावलीश्वापदे विश्वाशातिकरालकालदहने शुष्यन्मनीयावने । नानादुर्णयमार्गदुर्गमतमे दृङ्मोहिनां देहिनां जैनं दर्शनमेकमेव शरणं जन्माटवीसंकटे ।। ३०६ ॥ युक्त कुतर्क वचनों को सुनकर जिनेश्वर प्रणीत शुद्धरत्नत्रय मार्ग के प्रति हे भव्यजीवो! अभक्ति नहीं करना, परन्तु भक्ति करना ही कर्त्तव्य है । '
उक्त गाथा और उसकी टीका में अत्यन्त करुणाभाव से आचार्यदेव एवं टीकाकार मुनिराज कह रहे हैं कि हे भव्यजीवो ! इस जगत में ऐसे अज्ञानियों की कमी नहीं है कि जो ईर्ष्याभाव के कारण एकदम सच्चे रत्नत्रयरूप धर्म की निन्दा करते देखे जाते हैं; उनके भड़कावे में आकर, उनके मुख से इस पवित्रमार्ग की निन्दा सुनकर बिना विचार किये इस पवित्र मार्ग से च्युत नहीं हो जाना; अन्यथा तुम्हें भव-भव में भटक कर अनंत दुःख उठाने पड़ेंगे। सभी आत्मार्थी भाई-बहिनों को आचार्यदेव के उक्त करुणा से सने वचनों पर ध्यान देना चाहिए, उनकी शिक्षा का पूरी तरह से पालन करना चाहिए ।। १८६ ।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव दो छन्द लिखते हैं; जिनमें से पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है
( हरिगीत )
देहपादपव्यूह से भयप्रद बसें वनचर पशु । कालरूपी अग्नि सबको दहे सूखे बुद्धिजल ।। अत्यन्त दुर्गम कुनयरूपी मार्ग में भटकन बहुत । इस भयंकर वन विषै है जैनदर्शन इक शरण || ३०६ ||
देहरूपी वृक्षों की पंक्ति की व्यूहरचना से भयंकर, दुःखों की पंक्ति रूपी जंगली पशुओं का आवास, अति करालकालरूपी अग्नि जहाँ सबको सुखाती है, जलाती है और जो दर्शनमोह युक्त जीवों को अनेक कुनयरूपी मार्गों के कारण अत्यन्त दुर्गम है; उस जन्मरूपी भयंकर जंगल के विकट संकट में जैनदर्शन ही एक शरण है ।
जिसप्रकार गाथा और उसकी टीका में अत्यन्त करुणाभाव से भव्य जीवों को संबोधित किया गया है; उसीप्रकार इस छन्द में भी अत्यन्त करुणापूर्वक समझाया जा रहा है कि इस दुःखों के घर संसार में एकमात्र जैनदर्शन शरणभूत है; क्योंकि सच्चा वीतरागी मार्ग जैनदर्शन में ही है, अन्यत्र कहीं भी नहीं है ।। ३०६ ।।