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शुद्धोपयोग अधिकार
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तथा चोक्तममृताशीतौ ह्न
(मालिनी) ज्वरजननजराणां वेदना यत्र नास्ति
परिभवति न मत्य गतिर्नो गतिर्वा । तदतिविशदचित्तैर्लभ्यतेऽङ्गेऽपि तत्त्वं,
गुणगुरुगुरुपादाम्भोजसेवाप्रसादात् ।।८७।। तथा हि ह्न
(मंदाक्रांता) यस्मिन् ब्रह्मण्यनुपमगुणालंकृते निर्विकल्पेऽक्षानामुच्चैर्विविधविषमं वर्तनं नैव किंचित् । नैवान्ये वा भविगुणगणा: संसृतेर्मूलभूता: तस्मिन्नित्यं निजसुखमयं भाति निर्वाणमेकम् ।।३००।।
(रोला) जनम जरा ज्वर मत्य भी है पास न जिसके।
गती-अगति भी नाहिं है उस परमतत्त्व को।। गुरुचरणों की सेवा से निर्मल चित्तवाले।
तन में रहकर भी अपने में पा लेते हैं ।।८७|| जिस परमतत्त्व में ज्वर, जन्म और जरा (बढापा) की वेदना नहीं है: मत्य नहीं है और गति-अगति नहीं है: उस परमतत्त्व को अत्यन्त निर्मल चित्तवाले परुष. शरीर में स्थित होने पर भी गुण में बड़े ह्न ऐसे गुरु के चरण कमल की सेवा के प्रसाद से अनुभव करते हैं।
इस छन्द में ज्वर, जरा, जन्म और मरण की वेदना से रहित, गति-आगति से रहित निज भगवान आत्मारूप परमतत्त्व को तन में स्थित होने पर भी निर्मल चित्तवाले पुरुष गुणों से महान गुरु के चरणों की सेवा के प्रसाद से प्राप्त कर लेते हैं। तात्पर्य यह है कि देशनालब्धिपूर्वक सम्यक् पुरुषार्थ के बल से आत्मार्थी पुरुष निज आत्मा को प्राप्त कर लेते हैं।।८७||
इसके बाद टीकाकार मनिराज 'तथा हि लिखकर एक छन्द स्वयं लिखते हैं। जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
१. योगीन्द्रदेवकृत अमृताशीति, छन्द ५८