Book Title: Niyamsara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 462
________________ ४६२ नियमसार नापि दुःखं नापि सौख्यं नापि पीडा नैव विद्यते बाधा। नापि मरणं नापि जननं तत्रैव च भवति निर्वाणम् ।।१७९।। इह हि सांसारिकविकारनिकायाभावान्निर्वाणं भवतीत्युक्तम् । निरुपरागरत्नत्रययात्मकपरमात्मन: सततान्तर्मुखाकारपरमाध्यात्मस्वरूपनिरतस्य तस्य वाऽशुभपरिणतेभावान्न चाशुभकर्म अशुभकर्माभावान्न दुःखम्, शुभपरिणतेरभावान्न शुभकर्म शुभाकर्माभावान्न खलु संसारसुखम्, पीडायोग्ययातनाशरीराभावान्न पीडा, असातावेदनीयकर्माभावान्नैव विद्यते बाधा, पंचविधनोकर्माभावान्न मरणम्, पंचविधनोकर्महेतुभूतकर्मपुद्गलस्वीकाराभावान्ने जननम् । एवंलक्षणलक्षिताक्षुण्णविक्षेपविनिर्मुक्तपरमतत्त्वस्य सदा निर्वाणं भवतीति । (मालिनी) भवभवसुखदुःखं विद्यते नैव बाधा ___ जननमरणपीडा नास्ति पस्येह नित्यम् । तमहमभिनमामि स्तौमि संभावयामि स्मरसुखविमुखस्सन् मुक्तिसौख्याय नित्यम् ।।२९८ ।। जहाँ अर्थात् जिस आत्मा में दुख नहीं है, सुख नहीं है, पीड़ा नहीं है, बाधा नहीं है, मरण नहीं है, जन्म नहीं है; वहाँ ही अर्थात् उस आत्मा में ही, वह आत्मा ही निर्वाण है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न “सांसारिक विकार समूह के अभाव के कारण उक्त परमतत्त्व वस्तुत: निर्वाण है ह्न यहाँ ऐसा कहा गया है। निरन्तर अन्तर्मुखाकार परम अध्यात्मस्वरूप में निरत उस निरुपराग रत्नत्रयात्मक परमात्मा के अशुभ परिणति के अभाव के कारण अशुभ कर्म नहीं है और अशुभ कर्म के अभाव के कारण दुख नहीं है; शुभ परिणति के अभाव के कारण शुभकर्म नहीं है और शुभकर्म के अभाव के कारण वस्तुत: सांसारिक सुख नहीं है; पीड़ा योग्य यातना शरीर के अभाव के कारण पीड़ा नहीं है; असाता वेदनीय कर्म के अभाव के कारण बाधा नहीं है; पाँच प्रकार शरीररूप नोकर्म के अभाव के कारण मरण नहीं है और पाँच प्रकार के नोकर्म के हेतुभूत कर्म पुदगल के स्वीकार के अभाव के कारण जन्म नहीं है। ह्न ऐसे लक्षणों से लक्षित, अखण्ड, विक्षेपरहित परमतत्त्व को सदा निर्वाण है।" यहाँ मूल गाथा में मो मात्र यही कहा गया है कि परमतत्त्व में सांसारिक सुख-दुःख, जन्म-मरण तथा पीड़ा और बाधा नहीं है। अन्तिम पद में कहा कि ऐसा आत्मा ही निर्वाण है; किन्तु टीका में उक्त परमतत्त्व के प्रत्येक विशेषण को सकारण समझाया गया है। अन्त में यह भी स्पष्ट कर दिया है कि उक्त विशेषणों से विशिष्ट परमतत्त्व ही निर्वाण है। गाथा और टीका में परमतत्त्व की उक्त विशेषताओं में पूर्णतः स्पष्ट हो जाने के उपरान्त

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