Book Title: Niyamsara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 457
________________ शुद्धोपयोग अधिकार जाइजरमणरहियं परमं कम्मट्ठवज्जियं सुद्धं । णाणाइचउसहावं अक्खयमविणासमच्छेयं । । १७७।। जातिजरामरणरहितं परमं कर्माष्टवर्जितं शुद्धम् । ज्ञानादिचतु: स्वभावं अक्षयमविनाशमच्छेद्यम् ।। १७७ ।। कारणपरमतत्त्वस्वरूपाख्यानमेतत् । निसर्गतः संसृतेरभावाज्जातिजरामरणरहितम्, परमपारिणामिकभावेन परमस्वभावत्वात्परम्, त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपत्वात् कर्माष्टकवर्जितम्, द्रव्यभावकर्मरहितत्वाच्छुद्धम्, सहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजचिच्छक्तिमयत्वा ज्ज्ञानादिचतु:स्वभावम्, सादिसनिधनमूर्तेन्द्रियात्मकविजातीयविभावव्यंजनपर्यायवीत पाँच प्रकार के संसार से मुक्त होने के लिए, पाँच प्रकार के संसार से मुक्त, पाँच प्रकार के मोक्षरूपी फल को देनेवाले, पाँच प्रकार के सिद्धों की मैं वंदना करता हूँ । ४५७ उक्त छन्द का आशय यह है कि सिद्ध भगवान द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप पंचपरावर्तनरूप संसार से मुक्त हैं, उक्त पाँच प्रकार रूप संसार से मुक्त करने रूप फल को देनेवाले हैं; अत: उक्त पाँच प्रकार के संसार से मुक्त होने के लिए मैं उक्त पाँच प्रकार की उपलब्धि से युक्त सिद्धों की वंदना करता हूँ । । २९५ ।। अब इस गाथा में कारणपरमतत्त्व का स्वरूप समझाते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( हरिगीत ) शुद्ध अक्षय करम विरहित जनम मरण जरा रहित । ज्ञानादिमय अविनाशि चिन्मय आतमा अक्षेद्य है ।।१७७ || वह कारणपरमतत्त्व; जन्म-जरा-मरण और आठ कर्मों से रहित, परम, शुद्ध, अक्षय, अविनाशी, अच्छेद्य और ज्ञानादि चार स्वभाव वाला है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "यह कारणपरमतत्त्व के स्वरूप का निरूपण है । वह कारणपरमतत्त्व; स्वभाव से ही संसार का अभाव होने से जन्म-जरा-मरण रहित है; परमपारिणामिकभाव से परमस्वभाववाला होने से परम है; त्रिकाल निरुपाधि स्वरूप होने से आठ कर्मों से रहित है; द्रव्यकर्म और भावकर्मों से रहित होने से शुद्ध है; सहजज्ञान, सहजदर्शन, सहजचारित्र और सहज चित्शक्तिमय होने से ज्ञानादिक चार स्वभाव वाला है; सादि - सान्त, मूर्त इन्द्रियात्मक विजातीय विभाव व्यंजनपर्याय रहित होने से अक्षय है; प्रशस्त- अप्रशस्त गति के हेतुभूत

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