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नियमसार
(शार्दूलविक्रीडित) देवेन्द्रासन-कंपकारण-महत्कैवल्यबोधोदये मुक्तिश्रीललनामुखाम्बुजरवे: सद्धर्मरक्षामणेः। सर्वं वर्तनमस्ति चेन्न च मनः सर्वं पुराणस्य तत्
सोऽयं नन्वपरिप्रमेयमहिमा पापाटवीपावकः ।।२९२।। आउस्स खयेण पुणो णिण्णासो होइ सेसपयडीणं । पच्छा पावइ सिग्धं लोयग्गं समयमेत्तेण ।।१७६।।
प्रवचनसार की उक्त गाथा में भी यही कहा गया है कि जिसप्रकार महिलाओं में मायाचार की बहुलता सहजभाव से पायी जाती है; उसीप्रकार केवली भगवान का खड़े रहना, उठना, बैठना और धर्मोपदेश देना आदि क्रियायें बिना प्रयत्न के सहज ही होती हैं ।।८५।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छन्द लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत ) इन्द्र आसन कंपकारण महत केवलज्ञानमय । शिवप्रियामुखपद्मरवि सद्धर्म के रक्षामणि || सर्ववर्तन भले हो पर मन नहीं है सर्वथा ।
पापाटवीपावकजिनेश्वर अगम्य महिमावंत हैं ।।२९२।। देवेन्द्रों के आसन कंपायमान होने के कारणभूत महान केवलज्ञान के उदय होने पर; जो मुक्तिलक्ष्मीरूपी ललना के मुखकमल के सूर्य और सद्धर्म के रक्षामणि पुराणपुरुष भगवान के भले ही सभी प्रकार का वर्तन हो; तथापि भावमन नहीं होता; इसलिए वे पुराणपुरुष अगम्य महिमावंत हैं एवं पापरूपी अटवी (भयंकर जंगल) को जलाने के लिए अग्नि के समान हैं।
उक्त छन्द में भी केवली भगवान की स्तुति करते हुए यही कहा गया है कि सच्चे धर्म की रक्षा करनेवाले केवलज्ञान केधनी अरहंत भगवान के उपदेशादि क्रियायें हों, पर उनके भावमन नहीं होता; अत: कमों का बंध नहीं होता ||२९२।। विगत गाथा में यह बताया गया था कि केवली भगवान के खड़े रहना,
बैठना, चलना आदि क्रियायें इच्छापूर्वक नहीं होती और अब इस गाथा में यह बताया जा रहा है कि आयु कर्म के साथ अन्य अघाति कर्मों का भी क्षय हो जाता है तथा केवली भगवान एक समय में सिद्धशिला पर विराजमान हो जाते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न