________________
४५२
नियमसार
ठाणणिसेज्जविहारा ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो । तम्हा ण होइ बंधो साक्खटुं मोहणीयस्स ।। १७५ ।। स्थाननिषण्णविहारा ईहापूर्वं न भवन्ति केवलिनः । तस्मान्न भवति बंध: साक्षार्थं मोहनीयस्य । । १७५ ।। केवलिभट्टारकस्यामनस्कत्वप्रद्योतनमेतत् । भगवतः परमार्हन्त्यलक्ष्मीविराजमानस्य
( हरिगीत )
धर्म एवं कर्म का परपंच न जिनदेव में । रे रागद्वेषाभाव से वे अतुल महिमावंत हैं । वीतरागी शोभते श्रीमान् निज सुरख लीन I मुक्तिरमणी कंत ज्ञानज्योति से हैं छा गये ।। २९९ ।।
जिनेन्द्र भगवान में धर्म और कर्म का प्रपंच नहीं है । तात्पर्य यह है कि उनमें साधक दशा में होनेवाले शुद्धि - अशुद्धि के भेद-प्रभेद नहीं है। राग के अभाव के कारण वे जिनेन्द्र भगवान अतुल महिमावंत हैं और वीतरागभावरूप से विराजते हैं। वे श्रीमान् शोभावान भगवान निजसुख में लीन हैं, मुक्तिरमणी के नाथ हैं और ज्ञानज्योति द्वारा लोक के विस्तार में चारों ओर से पूर्णत: छा गये हैं ।
इसप्रकार इस छन्द में यह कहा गया है कि वीतरागी - सर्वज्ञ जिनेन्द्र भगवान में न तो कर्म का प्रपंच है और न धर्म का विस्तार है; क्योंकि शुद्धि और अशुद्धि के भेदरूप धर्म और कर्म का विस्तार तो निचली भूमिका में होता है । अतुल महिमा के धारक जिनेन्द्र देव रागभाव के अभाव के कारण वीतरागभावरूप से विराजते हैं। वे वीतरागी भगवान निजसुख में लीन हैं और मुक्ति रमणी के नाथ हैं ।। २९१ ||
विगत गाथाओं में ज्ञानी को बंध नहीं होता ह्न यह बताया है और अब इस गाथा में केवली भगवान के भावमन नहीं होता ह्न यह बतलाते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र ( हरिगीत )
खड़े रहना बैठना चलना न ईहापूर्वक ।
बंधन नहीं अ मोहवश संसारी बंधन में पड़े ।। १७५ ।।
केवली भगवान के खड़े रहना, बैठना और विहार करना इच्छापूर्वक नहीं होते; इसलिए उन्हें बंध नहीं होता । मोहनीयवश संसारी जीव को साक्षार्थ (इन्द्रिय विषय सहित) होने से बंध होता है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न
6
'भट्टारक केवली भगवान के भावमन नहीं होता ह्न यहाँ यह बताया जा रहा है । अरहंत