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शुद्धोपयोग अधिकार केवलिन: परमवीतरागसर्वज्ञस्य ईहापूर्वकं न किमपि वर्तनम्; अत: स भगवान् न चेहते मनःप्रवृत्तेरभावात्; अमनस्का: केवलिन: इति वचनाद्वा न तिष्ठति नोपविशति न चेहापूर्व श्रीविहारादिकं करोति । ततस्तस्य तीर्थकरपरम-देवस्य द्रव्यभावात्मकचतुर्विधबंधोन भवति । सच बंधः पुनः किमर्थं जात: कस्य संबंधश्च? मोहनीयकर्मविलासविजृम्भितः, अक्षार्थमिन्द्रियार्थं तेन सह यः वर्तत इति साक्षार्थं मोहनीयस्य वशगतानांसाक्षार्थप्रयोजनानांसंसारिणामेव बंध इति । तथा चोक्तं श्री प्रवचनसारे ह्न
ठाणणिसेजविहारा धम्मुवदेसोय णियदयो तेसिं।
अरहंताणं काले मायाचारो पव्व इत्थीणं ।।८५।।' भगवान के योग्य परमलक्ष्मी से विराजमान परम वीतराग सर्वज्ञदेव केवली भगवान का कुछ भी वर्तन इच्छापूर्वक नहीं होता। मनप्रवृत्ति के अभाव होने से वे कुछ भी नहीं चाहते। अथवा वे इच्छा पूर्वक खड़े नहीं रहते, बैठते भी नहीं हैं और न इच्छापूर्वक विहार ही करते हैं; क्योंकि 'अमनस्का: केवलिन: ह्न केवली भगवान मनरहित होते हैं ये शास्त्र का वचन है। इसलिए उन तीर्थंकर परमदेव को द्रव्य-भावरूप चार प्रकार का बंध नहीं होता।
वह चार प्रकार का बंध क्यों होता है, किसे होता है ?
मोहनीय कर्म के विलास से वह बंध होता है तथा इन्द्रियों से सहित संसारी जीवों को मोहनीय के वश इन्द्रियविषयरूप प्रयोजन से वह बंध होता है।"
इसप्रकार इस गाथा और उसकी टीका में यही कहा गया है कि केवली भगवान के विहारादि इच्छापूर्वक नहीं होते; अत: उनको बंध भी नहीं होता। प्रकृति, प्रदेश, स्थिति
और अनुभाग ह्न ये चार प्रकार के बंध मोहनीय कर्म के उदय से होनेवाले मोह-राग-द्वेष के कारण संसारी जीवों को होते हैं।।१७५||
इसके बाद टीकाकार मुनिराज प्रवचनसार में कहा गया है' ह्न ऐसा कहकर एक गाथा प्रस्तुत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(हरिगीत) यत्न बिन ज्यों नारियों में सहज मायाचार त्यों।
हो विहार उठना-बैठना अर दिव्यध्वनि अरहंत के||८५|| उन अरहंत भगवंतों के उस समय खड़े रहना, बैठना, विहार करना और धर्मोपदेश करना आदि क्रियायें स्त्रियों के मायाचार की भांति स्वाभाविक ही हैं, प्रयत्न बिना ही होती हैं।
१. प्रवचनसार, गाथा ४४