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नियमसार
मुत्तममुत्तं दव्वं चेयणमियरं सगं च सव्वं च। पेच्छंतस्स दु णाणं पच्चक्खमणिंदियं होइ ।।१६७।।
मूर्तममूर्तं द्रव्यं चेतनमितरत् स्वकं च सर्वं च।
पश्यतस्तु ज्ञानं प्रत्यक्षमतीन्द्रियं भवति ।।१६७।। केवलबोधस्वरूपाख्यानमेतत् । षण्णां द्रव्याणां मध्ये मूर्तत्वं पुद्गलस्य पंचानाम् अमूर्तत्वम्; चेतनत्वं जीवस्यैवं पंचानामचेतनत्वम् । मूर्तामूर्तचेतनाचेतनस्वद्रव्यादिकमशेषं त्रिकालविषयम् अनवरतं पश्यतो भगवतः श्रीमदर्हत्परमेश्वरस्य क्रमकरणव्यवधानापोढं चातीन्द्रियं च सकलविमलकेवलज्ञानं सकलप्रत्यक्षं भवतीति । तथा चोक्तं प्रवचनसारे ह्र
जं पेच्छदो अमुत्तं मुत्तेसु अदिदियं च पच्छण्णं ।
सयलं सगं च इदरं तं णाणं हवदि पच्चक्खं ।।८०॥ गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत) चेतन-अचेतन मूर्त और अमूर्त सब जग जानता।
वह ज्ञान है प्रत्यक्ष अर उसको अतीन्द्रिय जानना ||१६७|| मूर्त-अमूर्त, चेतन-अचेतन द्रव्यों को, स्व को, सभी को देखने-जाननेवालों का ज्ञान अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष होता है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न
“यह केवलज्ञान के स्वरूप का व्याख्यान है। छह द्रव्यों में पुद्गल को मूर्तपना और शेष पाँच द्रव्यों को अमूर्तपना है तथा जीव को चेतनपना और शेष पाँच को अचेतनपना है। त्रिकालवर्ती मूर्त-अमूर्त, चेतन-अचेतन स्वद्रव्यादि समस्त द्रव्यों को निरन्तर देखनेजाननेवाले भगवान श्रीमद् अरहंत परमेश्वर का अतीन्द्रिय सकल विमल केवलज्ञान; क्रम, इन्द्रिय और व्यवधान रहित सकलप्रत्यक्ष है।"
इस गाथा और उसकी टीका में यह कहा गया है कि इन्द्रिय, क्रम और व्यवधान से रहित केवलज्ञान; मूर्त-अमूर्त, चेतन-अचेतन ह्न सभी पदार्थों को प्रत्यक्ष जानता है; क्योंकि वह ज्ञान पूर्णत: निर्मल और अतीन्द्रिय है।।१६७।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज तथा प्रवचनसार में भी कहा गया है' ह्न ऐसा लिखकर एक गाथा प्रस्तुत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र १.प्रवचनसार, गाथा ५४