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शुद्धोपयोग अधिकार
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खलु न जानात्यात्मा, स्वरूपावस्थित: संतिष्ठति । यथोष्ठस्वरूपस्याग्ने: स्वरूपमग्निः किं जानाति, तथैव ज्ञानज्ञेयविकल्पाभावात् सोऽयमात्मात्मनि तिष्ठति । हहो प्राथमिकशिष्य अग्नि वदयमात्मा किमचेतनः । किंबहुना । तमात्मानं ज्ञानं न जानाति चेद् देवदत्तरहितपरशुवत् इदं हि नार्थक्रियाकारि, अत एव आत्मनः सकाशाद् व्यतिरिक्तं भवति । तन्न खलु सम्मतं स्वभाववादिनामिति।
यदि कोई कहे कि यह विपरीत विचार (वितर्क) किसप्रकार है ? तो कहते हैं कि वह इसप्रकार है ह्न पूर्वोक्त ज्ञानस्वरूप आत्मा को आत्मा वस्तुत: जानता नहीं है, आत्मा तो मात्र स्वरूप में ही अवस्थित रहता है।
जिसप्रकार उष्णता स्वरूप में स्थित अग्नि को क्या अग्नि जानती है? नहीं जानती। उसीप्रकार ज्ञान-ज्ञेय संबंधी विकल्प के अभाव के कारण यह आत्मा तो मात्र आत्मा में स्थित रहता है, आत्मा को जानता नहीं है।
शिष्य के उक्त प्रश्न का उत्तर देते हए आचार्यदेव कहते हैं कि हे प्राथमिक शिष्य ! क्या यह आत्मा अग्नि के समान अचेतन है?
अधिक क्या कहें ? यदि उस आत्मा को ज्ञान नहीं जाने तो वह ज्ञान, देवदत्त रहित कुल्हाड़ी की भाँति अर्थक्रियाकारी सिद्ध नहीं होगा; इसलिए वह ज्ञान, आत्मा से भिन्न सिद्ध होगा। यह बात अर्थात् ज्ञान और आत्मा की सर्वथा भिन्नता स्वभाववादियों को इष्ट (सम्मत) नहीं है। अत: यही सत्य है कि ज्ञान आत्मा को जानता है।"
इस गाथा और उसकी टीका में यक्ति के आधार से यह सिद्ध किया गया है कि आत्मा ज्ञानस्वभावी है; अत: वह स्वयं को जानता है। प्राथमिक शिष्य का कहना यह है कि जिस प्रकार अग्नि अपने उष्णतारूप स्वभाव में अवस्थित तो रहती है, पर स्वयं को जानती नहीं है; उसीप्रकार यह आत्मा भी अपने ज्ञानस्वभाव में अवस्थित तो रहता है, पर स्वयं को जानता है। शिष्य को समझाते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि अरे भाई ! आत्मा अग्नि के समान अचेतन नहीं है, आत्मा तो चेतन पदार्थ है। अत: यह अग्नि का उदाहरण घटित नहीं होता।
यहाँ तो कहते हैं कि जिसप्रकार कुल्हाड़ी रहित देवदत्त लकड़ी को काटने में समर्थ नहीं होता; क्योंकि वह कुल्हाड़ी से भिन्न है; उसीप्रकार स्वयं को जानने में असमर्थ आत्मा भी ज्ञान से भिन्न सिद्ध होगा। यह तो आप जानते ही हैं कि ज्ञान और आत्मा की सर्वथा भिन्नता स्याद्वादा जानयो को स्वीकृत नहीं है। अत: यही सत्य है कि स्वभाव में अवस्थित आत्मा आत्मा को जानता है, ज्ञान आत्मा को जानता है ।।१७०।। १. प्रयोजनभूत क्रिया करने में समर्थ