________________
४४७
शुद्धोपयोग अधिकार
जानन् पश्यन्नीहापूर्वं न भवति केवलिनः।
केवलज्ञानी तस्मात् तेन तु सोऽबन्धको भणतिः ।।१७२।। सर्वज्ञवीतरागस्य वांछाभावत्वमत्रोक्तम् । भगवानर्हत्परमेष्ठी साद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारेण केवलज्ञानादिशुद्धगुणानामाधारभूतत्वात् विश्रमश्रान्तं जानन्नपि पश्यन्नपि वा मन:प्रवृत्तेरभावादीहापूर्वकं वर्तनं न भवति तस्य केवलिन: परमभट्टारकस्य, तस्मात् स भगवान् केवलज्ञानीति प्रसिद्धः, पुनस्तेन कारणेन स भगवान अबन्धक इति ।
(हरिगीत ) जानते अर देखते इच्छा सहित वर्तन नहीं।
बस इसलिए हैं अबंधक अर केवली भगवान वे||१७२।। जानते और देखते हुए भी केवली भगवान के इच्छापूर्वक वर्तन नहीं होता; इसलिए उन्हें केवलज्ञानी कहा है और इसीलिए उन्हें अबंध कहा गया है।।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न
“यहाँ सर्वज्ञ-वीतरागी भगवान के इच्छा का अभाव होता है ह्न यह कहा गया है। भगवान अरहंत परमेष्ठी सादि-अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रिय स्वभाव वाले, शुद्धसद्भूत व्यवहारनय से केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों के आधारभूत होने के कारण विश्व को निरन्तर जानते हुए भी और देखते हुए भी, उन परम भट्टारक केवली भगवान को मनप्रवृत्ति का अभाव होने से इच्छापूर्वक वर्तन नहीं होता, इसलिए वे भगवान केवलज्ञानीरूप से प्रसिद्ध हैं और उस कारण से वे भगवान अबन्धक हैं।"
इस गाथा और उसकी टीका में यह कहा गया है कि यद्यपि केवली भगवान शुद्धसद्भूत व्यवहारनय से अर्थात् अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय से सम्पूर्ण जगत को देखते-जानते हैं; तथापि उनके मन की प्रवृत्ति का अभाव होने से, भाव मन के अभाव होने से इच्छा का अभाव होता है, इच्छापूर्वक वर्तन नहीं होता है; यही कारण है कि सर्वज्ञरूप प्रसिद्ध उन केवली भगवान को बंध नहीं होता।
इच्छा के अभाव में भी उनके द्वारा जो योग का प्रवर्तन होता है, उसके कारण होनेवाले आस्रव और एक समय का प्रदेश बंध होता है; मोह-राग-द्वेष के अभाव के कारण उस बंध में स्थिति और अनुभाग नहीं पड़ने से एक समय में ही उसकी निर्जरा हो जाती है; इसलिए वे अबंधक ही हैं ।।१७२।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज तथा प्रवचनसार में भी कहा गया है' ह्न ऐसा लिखकर एक गाथा प्रस्तुत करते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न