Book Title: Niyamsara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 449
________________ शुद्धोपयोग अधिकार ४४९ परिणामपुव्ववयणं जीवस्स य बंधकारणं होई । परिणामरहियवयणं तम्हा णाणिस्स ण हि बंधो । । १७३ । । ईहापुव्वं वयणं जीवस्स य बंधकारणं होइ । ईहारहियं वयणं तम्हा णाणिस्स ण हि बंधो । । १९७४ । । परिणामपूर्ववचनं जीवस्य च बंधकारणं भवति । परिणामरहितवचनं तस्माज्ज्ञानिनो न हि बंध: ।।१७३ ।। ईहापूर्वं वचनं जीवस्स च बंधकारणं भवति । ईहारहितं वचनं तस्माज्ज्ञानिनो न हि बंध: ।। १७४ ।। इह हि ज्ञानिनो बंधाभावस्वरूपमुक्तम् । सम्यग्ज्ञानी जीवः क्वचित् कदाचिदपि स्वबुद्धि इस कलश में यही कहा गया है कि सर्वज्ञ- वीतरागी जिनदेव जगत के सभी पदार्थों को देखते - जानते हैं; फिर भी मोह के अभाव में किसी भी परपदार्थ को ग्रहण नहीं करते। वे तो जगत के एकमात्र साक्षी हैं, सहज ज्ञाता दृष्टा ही हैं ॥२८८॥ विगत गाथा में यह बताया गया था कि केवली भगवान के इच्छा का अभाव है और अब इन गाथाओं में यह बताया जा रहा है कि इच्छा का अभाव होने से उन्हें बंध नहीं होता। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( हरिगीत ) बंध कारण जीव के परिणामपूर्वक वचन हैं । परिणाम विरहित वचन केवलिज्ञानियों को बंध न || १७३ ॥ हापूर्वक वचन ही हों बंधकारण जीव को । हा रहित हैं वचन केवलिज्ञानियों को बंध न || १७४ | | परिणामपूर्वक होनेवाले वचन जीव के बंध के कारण हैं । केवलज्ञानी के परिणाम रहित वचन होता है; इसलिए उन्हें वस्तुत: बंध नहीं होता । इच्छापूर्वक वचन जीव के बंध के कारण हैं । केवलज्ञानी को इच्छा रहित वचन होने से उन्हें वस्तुत: बंध नहीं है । ये दोनों गाथायें लगभग एक समान ही हैं। इनमें परस्पर मात्र इतना ही अन्तर है कि प्रथम गाथा में प्राप्त परिणामपूर्वक वचन के स्थान पर दूसरी गाथा में ईहापूर्वक वचन कर दिया गया है। भाव दोनों का समान ही है । इन गाथाओं के भाव को टीकाकार मुनिराज इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “यहाँ वस्तुत: केवलज्ञानी को बंध नहीं होता ह्र यह कहा गया है । सम्यग्ज्ञानी अर्थात्

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