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शुद्धोपयोग अधिकार
तथा चोक्तं श्रीसमन्तभद्रस्वामिभि: ह्र
तथा हि
( अपरवक्त्र )
स्थितिजनननिरोधलक्षणं चरमचरं च जगत्प्रतिक्षणम् ।
इति जिन सकलज्ञलांछनं वचनमिदं वदतांवरस्य ते ।।८१ । । १
(वसंततिलका)
जानाति लोकमखिलं खलु तीर्थनाथः स्वात्मानमेकमनघं निजसौख्यनिष्ठम् । नो वेत्ति सोऽयमिति तं व्यवहारमार्गाद्
वक्तीति कोऽपि मुनिपो न च तस्य दोष: ।। २८५ ।। ( हरिगीत )
उत्पादव्ययध्रुवयुत जगत यह वचन हे वदताम्बरः । सर्वज्ञता का चिह्न है हे सर्वदर्शि जिनेश्वरः ॥ ८१ ॥ हे वक्ताओं में सर्वश्रेष्ठ मुनिसुव्रतनाथ भगवान ! 'जंगम और स्थावर यह चराचर जगत प्रतिक्षण उत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणवाला है' ह्र ऐसा यह आपका वचन आपकी सर्वज्ञता का चिह्न है।
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आचार्य समन्तभद्र के उक्त छन्द में यह कहा गया है कि यह सम्पूर्ण जगत उत्पादव्यय-ध्रौव्य लक्षणवाला है ह्न आपका यह कथन आपकी सर्वज्ञता का चिह्न है; क्योंकि सर्वज्ञ के अलावा कोई भी डंके की चोट यह बात नहीं कह सकता। सर्वज्ञ भगवान के प्रत्यक्ष ज्ञान में वस्तु का ऐसा स्वरूप आता है । क्षयोपशम ज्ञानवाले तो इसे सर्वज्ञ के वचनों के अनुसार लिखित आगम और अनुमान से ही यह जानते हैं । आगम और अनुमान प्रमाण परोक्षज्ञान हैं ।।८१।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
( हरिगीत )
रे केवली भगवान जाने पूर्ण लोक- अलोक को । पर अनघ निजसुखलीन स्वातम को नहीं वे जानते ॥ यदि कोई मुनिवर यों कहे व्यवहार से इस लोक में । उन्हें कोई दोष न बोलो उन्हें क्या दोष है || २८५ ॥
१. बृहत्स्वयंभूस्तोत्र : भगवान मुनिसुव्रतनाथ की स्तुति, छन्द ११४